Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: द्वितीय अषाढ: २४७६ आत्मधर्म : १८५:
स्याद्वाद छे. सर्वज्ञ भगवाने कहेलुं अंतरनुं रहस्य जणावीने आचार्यदेव कहे छे के हे भाई, तुं आत्मामां
प्रीति कर.
‘आत्मा’ ना नामे वात तो घणा करे छे, पण आत्मा कहेवो कोने? तेनुं स्वरूप शुं छे? एनी समजणमां
अनादिना वांधा ऊठया छे. आत्मा परनुं करे ने पुण्यथी आत्माने लाभ थाय–एम अज्ञानीओ माने छे. पण
परनुं करे के पुण्यथी लाभ थाय–एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. आत्मा परनुं करे तेवो नथी, तेम ज परथी ते
लाभ–नुकसान पामतो नथी. परथी आत्माने लाभ के नुकसान थाय–देव–गुरु–शास्त्रथी लाभ थाय ने कर्मोथी
नुकसान थाय–एम जे माने ते परने पोतानां मान्या वगर तेम मानी न शके. परनी ने पोतानी एकपणानी
मान्यताथी परथी लाभ–नुकसान माने छे ते मान्यता महा मिथ्यात्व छे. आत्मा आत्मापणे छे ने परपणे नथी,
पर परपणे छे ने आत्मापणे नथी, –एटले आत्मा पोता सिवाय कोई परपदार्थनी वर्तमानदशा करी न शके, ने
कोई परपदार्थ आत्मानी दशामां जरापण लाभ के नुकसान करी न शके. –आम जो बराबर नक्की करे तो स्व–
परनी एकताबुद्धिनो भ्रम टळे. जे परपणे आत्मानुं अस्तित्व ज नथी तेनुं आत्मा कांई करी शके नहि, छतां
आत्मा परनुं कांई करे ए वात अज्ञानीओए भ्रमथी मानेली छे.
नजीकमां रहेला शरीरनी दशा पण पोतानी ईच्छा मुजब राखी शकतो नथी, तो पछी परमां तो आत्मा
शुं करे? शरीरमां रोग थाय त्यां ते रोगने टाळवानी ईच्छा आत्मा करे छे, पण ते ईच्छावडे आत्मा रोगने
मटाडी शकतो नथी. हुं राग करीने परनी दशाने पलटावी दउं–एम अज्ञानीओ माने भले, परंतु रागवडे
शरीरनी दशा पण फेरवी शकाती नथी. जो आत्मानी ईच्छाने आधीन शरीरनी दशा थती होय तो निरोगमांथी
रोग केम थवा द्ये? युवानमांथी वृद्धदशा शा माटे थवा द्ये? ईच्छा न होवा छतां ते दशाओ थाय छे, केम के ते तो
जडनी वर्तमानदशा छे. जड पदार्थ त्रिकाळ छे, ते त्रिकाळी पदार्थनी वर्तमान अवस्था, बीजा चैतन्यना ज्ञानना
के रागना आधारे थती नथी.
भाई रे, तुं शुं करी शके छे अने शुं मानी रह्यो छे तेनो तो विचार कर! पोते कोण छे ने पोते शुं कार्य
करी शके छे? तथा वर्तमान पोते शुं कार्य करी रह्यो छे? तेनो जीवे कदी अंतरमां विवेक कर्यो नथी. ज्ञानस्वरूपी
आत्मा पोताथी बहार कांई कार्य करी शके नहि. जे कांई करे ते पोतामां ज करे. अज्ञानभावे पोतानी अवस्थामां
विकारी भावो करे अने ज्ञानभावे पोतानी अवस्थामां निर्मळज्ञानभावने करे, पण जडमां तो ते कांई करी शके
नहि. जो एक सेंकड पण परथी पृथक्पणानुं यथार्थ भान करे तो विकार अने परना अभाव स्वभाववाळा
आत्मानुं स्वसंवेदन थईने अंतरमां सिद्ध भगवान जेवा आनंदनो अंश प्रगटे.
जे वस्तु होय ते खरेखर पोताना स्वभावथी विकारवाळी न होय. आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, तेनी
अवस्थामां जे अल्पज्ञता अने राग–द्वेष–क्रोधादि विकार छे ते तेनो स्वभाव नथी. विकार विनानो ज्ञानस्वभाव
छे, पण तेनो आनंद प्रगट आवतो नथी, तेनुं कारण ए छे के पोते जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे पोताने जाण्यो नथी
अने क्यांक बीजे पोतानी हयाती मानी रह्यो छे. वस्तु होय ते पोतानी वर्तमान हालत वगरनी होय नहि. पर
चीजनी वर्तमानदशा स्वतंत्रपणे थती होवा छतां, पर चीजनुं वर्तवुं मारा कारणे थाय छे–एम अज्ञानी माने छे,
तेथी परमां एकाग्रताथी ते अज्ञानभावने उत्पन्न करे छे, ए ज संसारनुं मूळ छे. परथी जुदा पोताना मूळ
स्वभावनी खबर वगर ‘हुं परनुं करुं’ एम परमां पोतापणुं अने ‘पर मारुं करे’ एम पोतामां परनुं होवापणुं
मानीने, एक बीजाथी लाभ–नुकसान मानी रह्यो छे, पण तेम थवुं कदी संभवतुं नथी; फक्त स्व–परनी
एकत्वबुद्धिथी जीवना भावमां मिथ्यात्व थाय छे, ते मोटो अधर्म छे.
आत्मानुं कार्यक्षेत्र केटलुं? क्यांय बहारमां तो आत्मानुं कार्यक्षेत्र छे ज नहि. रागी जीव पोतानी
अवस्थामां ईच्छा करे, ते ईच्छानुं कार्यक्षेत्र केटलुं? ते ईच्छा आत्माना स्वभावमां तो मदद करती नथी, तेम ज
शरीरनी क्रियामां फेरफार करवो ते पण ईच्छानुं कार्य नथी. शरीरमां रोग न आववा देवो ते ईच्छानुं कार्य नथी.
वहालो पुत्र मरतो होय तेने बचाववानी ईच्छा करे, पण पुत्रने मरतां बचाववो ते ईच्छानुं कार्य नथी.
ईच्छानुं कार्य फक्त आकुळता छे. माटे हे भाई! तारा ज्ञानस्वभावने ते ईच्छाथी ने शरीरथी भिन्न जाणीने तुं
आत्मामां रत था.