Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 21

background image
: १८६ : आत्मधर्म : द्वितीय अषाढ: २४७६
आत्माना सच्चिदानंद स्वाभावने भूलीने, परथी लाभ थाय–एवी पराधीन द्रष्टि करी छे तेथी आत्मा
परनी प्रीति करे छे पण आत्मानी प्रीति करतो नथी. ईच्छाथी शरीरनो रोग मटतो नथी, ईच्छाथी वहाली
स्त्रीने मरती बचावी शकतो नथी, ईच्छाथी लक्ष्मी मेळवी शकतो नथी, माटे ईच्छा परपदार्थमां कांई करी शकती
नथी. ईच्छानुं कार्यक्षेत्र परमां बिलकुल नथी. छतां हुं परनुं करी दउं एवी मान्यताने लीधे ते स्वनी प्रीति तरफ
वळतो नथी.
स्व अने परनो एकबीजामां अत्यंत अभाव छे, बंने पदार्थ त्रिकाळ जुदा छे. छतां हुं परनुं काम करुं, ने
पर मारुं काम करे एटले जाणे के परमां पोतानुं अस्तित्व होय ने पोतामां परनुं अस्तित्व होय, एम अज्ञानी
माने छे; तेथी भिन्न चैतन्य ज्ञाताने भूलीने परनी अने पोतानी एकत्वबुद्धिने लीधे जीव दुःखी छे. जीव परनी
रुचिमां अटक्यो छे ने स्वनी रुचि करतो नथी तेथी ज संसार छे.
आत्मा परथी तो त्रिकाळ जुदो छे, ने तेनी अवस्थामां जे दया, पूजादि शुभ के हिंसादि अशुभ लागणी
थाय ते पण विकार छे, वृत्तिनुं उत्थान छे, आत्माना स्वभावमां तेनो अभाव छे. निर्विकारी ज्ञानस्वरूपने
भूलीने, ते क्षणिक विकार जेटलो पोताने मानीने अज्ञानी तेनी रुचि करे छे; अनंतकाळमां एक सेंकड पण
निर्विकार ज्ञानस्वरूप आत्माने ओळखीने तेनी रुचि करी नथी. जेम डुंगर उपर वीजळी पडे अने तेना टुकडे
टुकडा थई जाय पछी ते फरी संधाय नहि, तेम जो एकवार पण आत्मानुं भान प्रगट करीने अज्ञानने टाळे तो
ते जीवनी मुक्ति थाय ने तेने फरीथी अवतार रहे नहि.
हुं आत्मा देहादिनी क्रियाथी भिन्न ज्ञानस्वरूप छुं. ने वर्तमान मारी अवस्थामां थती शुभ के अशुभ
लागणी ते बंने विकार छे. दया–दान–सत्श्रवण वगेरे शुभ–लागणी पहेलांं न हती ने नवी थई, पहेलांं वेपार–
धंधा वगेरेनी अशुभ लागणी हती, ते पलटीने शुभ लागणी थई, वळी ते शुभ लागणी पलटीने अशुभ थई
जशे. ए प्रमाणे ते शुभ अने अशुभ लागणीओ कृत्रिम नवी नवी थया करे छे, ते कोई लागणीओ आत्मा
साथे कायम रहेती नथी, माटे ते आत्माना कायमी स्वरूपनी चीज नथी, पण आत्माना स्वरूपथी भिन्न छे.
शुभ–अशुभ विकाररहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा केवो छे तेनी अनंतकाळमां एक सेकंड पण रुचि करी नथी.
परथी तो आत्मा जुदो छे, ने पर तरफना लक्षे राग–द्वेषनी लागणी थाय तेनाथी पण आत्मानो
स्वभाव जुदो छे, ते जुदा आत्माने जाणवानी प्रीति अंतरमां कदी करी नथी, अने बहारनुं करवाना
अभिमानथी अनादिथी रखडे छे. अहीं आचार्यदेव कहे छे के ज्ञानस्वभावी आत्माने ओळखीने तेनी प्रीति
करवी ते ज उत्तम सुखनो उपाय छे. ‘हुं आने बचावुं’ एवा रागभावथी वहाला कुटुंबी जनोने बचावी शकातां
नथी, अने ‘हुं आने मारी नाखुं’ एवो द्वेषभाव करे, तेनाथी शत्रुओने मारी शकाता नथी. ते राग–द्वेष
आत्मानो स्वभाव नथी तेम ज तेने लीधे परमां कांई थतुं नथी. आत्माना ज्ञानसहित परमां जेम थाय तेम
जाणे–एवो आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे, पण तेमां कांई फेरफार करे एवी ताकात आत्मामां नथी. कोई मरे के
बचे, वस्तु आवे के जाय–ते बधुं ते ते वस्तुओमां तेनो चालु वर्तमान काळ छे. वस्तुनुं वर्तमान ते त्रिकाळी
वस्तुना कारणे ज थाय छे; छतां मारे कारणे तेनुं वर्तमान थाय एम अज्ञानी माने छे ते भ्रांति छे. कोई पण
वस्तु वर्तमान वगर होय नहि, वर्तमान कहो के कार्य कहो के अवस्था कहो. दरेक वस्तुनुं वर्तमान कार्य
स्वतंत्रपणे थया ज करे छे. हुं ज्ञाता छुं ने ते मारुं ज्ञेय छे, ज्ञातानुं कार्य परमां नथी. –आ वात एक समय पण
यथार्थपणे मानी नथी.
जगतनी बधी चीजो तेनी शक्तिथी ज स्वयं बदली रही छे. जेम कोई ईश्वर तेनो कर्ता नथी, तेम कोई
बीजो प्राणी पण तेनो कर्ता नथी, ते द्रव्य स्वतंत्र छे ने तेनी त्रणे काळनी वर्तमान अवस्थाओ पण स्वतंत्र छे.
पर होय तो आत्मामां कांईक थाय, ने आत्मा होय तो शरीरादि परमां कांईक थाय ए मान्यता मिथ्या छे.
आत्मा एवो नमालो नथी. के तेने परनी जरूर पडे. तेम जड पदार्थो पण पराधीन नथी के पोतानी अवस्था
बदलवा माटे तेने बीजानी जरूर पडे. आवुं स्वतंत्रपणुं समज्या सिवाय बीजो कोई शांतिनो उपाय नथी.
जेने पोतानुं आत्मकल्याण करवुं होय तेने श्री आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! तुं आत्मामां सदा प्रीतिवंत
बन. आत्मा शरीरादिथी भिन्न अने