Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १८८ : आत्मधर्म : द्वितीय अषाढ: २४७६
जोता नथी. संयोगद्रष्टिथी ज संसार ऊभो छे. स्वभावमां संयोगनो अभाव छे, एटले के तेमां ते नथी. छतां,
जेमां जे नथी तेमां तेनाथी कांई थाय–एम अज्ञानीओए मिथ्याभ्रांतिथी मान्युं छे.
चैतन्यस्वरूप आत्मा पोते आनंदस्वभावी छे, पुण्य–पापना भावमांथी के लाडवा, स्त्री, लक्ष्मी
वगेरेमांथी तेनो आनंद आवतो नथी, केम के तेमां क्यांय आत्मानो आनंद भर्यो नथी. ज्यां आनंद भर्यो छे ते
वस्तुने जाणे नहि अने बहारथी आनंद लेवानुं माने तेने कदी आनंद प्रगटे नहि. चैतन्यनो आनंद चैतन्यमां
छे, तेने जाण्या वगर अने तेनी प्रीति कर्या वगर बीजा गमे तेटला क्रियाकांड करे तो पण धर्म थाय नहि, ने
आनंद प्रगटे नहि. चैतन्य आनंदमूर्तिनुं भान करीने तेमां ठरतां भ्रमभाव अने आकुळतारूप कचास टळे ने
ज्ञातास्वभावनो सहज आनंद प्रगटे, पछी फरीने ते जीव संसारमां अवतरे नहि.
अज्ञानपणामां जे रुचि परने पोतापणे स्वीकारती तथा विकारना अंशने ज आखुं स्वरूप स्वीकारती,
तेणे गुलांट मारीने हवे स्व तरफ वळीने त्रिकाळी पूर्णानंद द्रव्यनो स्वीकार कर्यो. जे रुचिए त्रिकाळी पूर्णानंद
द्रव्य तरफ वळीने तेनो स्वीकार कर्यो, तो ते रुचिनी साथे आनंदनो अंश व्यक्त न होय एम बने नहि.
सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रनो अंश, आनंदनो अंश, पुरुषार्थ–ए बधा रुचि भेगां ज छे. माटे आचार्यदेव कहे छे
के अरे आत्मा! एक वार तो परनी प्रीति छोडीने तुं आ भगवान आत्मा सामे जो, अने तेनी प्रीतिमां लीन
था, तो तने अपूर्व आनंदनो अनुभव थशे.
‘एक वार सामुं जुओ ने मारा साहिबा’ –अरे चैतन्य साहेबा! एक वार तो तारा स्वभाव सामे
जोईने तेनी प्रीति कर. अत्यार सुधी परनो महिमा कर्यो, हवे एकवार तो, भगवान! तारो पोतानो
महिमा कर.
ज्यां सुधी वीतराग न थाय त्यां सुधी पुण्य–पापनी वृत्ति होय, पण ते स्वमां के परमां कार्यगत थती
नथी. रागवडे शरीरादिमां के द्वेषवडे दुश्मनादिमां फेरफार करी शकातो नथी; तेम ज ते पुण्य–पापनी वृत्ति
आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे गुणोमां पण कांई मदद करे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. जो आम
समजे तो पर सामे जोवानुं टळी जाय ने पुण्य–पापनी रुचि ऊडी जाय, एटले स्वभावसन्मुख थईने तेनी
प्रीति थाय. अनंतकाळथी तें पर सामे ज जोयुं छे, माटे हे भव्य! हवे पोतानो ज्ञातास्वभाव छे तेनी सामे तो
जो. जेमां तारो आनंदस्वभाव भर्यो छे तेनी सामे जोतां ते प्रगटशे, पण ज्यां तारो आनंद नथी तेनी सामे
जोतां आनंद प्रगटशे नहि. जेमां स्वभाव होय तेमांथी प्रगटे, पण न होय तेमांथी प्रगटे नहि.
एक वार शियाळानी टाढ वखते जंगलमां माणसोए घास भेगुं करीने तेमां दीवासळी सळगावीने
तापणी करी. झाड उपरथी एक वांदराए ते जोयुं. अने तेणे पण माणसोनी जेम घासनो ढगलो भेगो कर्यो,
अने दीवासळीने बदले ऊडता आगियाने पकडीने घासमां मूक्यो. पण अग्नि थयो नहि. केम के आगियामां
अग्निनो स्वभाव नथी. दीवासळीमां सळगवानो स्वभाव छे. वस्तुना स्वभावने जाण्या विना वांदराए फकत
बाह्य संयोगनुं अनुकरण कर्युं. तेम ज्ञानीओने शुभरागरहित चैतन्यस्वभावनुं भान होय छे ने तेमने शुभराग
पण होय छे, त्यां अज्ञानीओ रागरहित स्वभावने जाण्या वगर फकत शुभरागनुं अनुकरण करे छे अने तेनाथी
धर्म माने छे. ज्ञानीने तो अंतरमां स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानवडे धर्म थाय छे तेने न ओळखतां, ज्ञानीने शुभराग
थाय छे माटे ते रागवडे ज्ञानीने धर्म थतो हशे–एम मानीने, अज्ञानी ते रागथी धर्म माने छे. पण वस्तुनो
स्वभाव शुं छे तेने ते जाणतो नथी. ज्ञानीने शुभ–अशुभभावो थता होवा छतां अंतरमां भान छे के आ बंने
भावो विकार छे, तेनांथी मारुं कल्याण नथी, मारुं स्वरूप तेनाथी जुदा प्रकारनुं छे. अज्ञानी तो पुण्यभावथी
कल्याण मानी ले छे, पुण्य–पाप वगरनो त्रिकाळ पवित्र स्वभाव छे तेनी ते रुचि करतो नथी, ने विकारनी रुचि
करे छे, ते ऊंधी रुचि तेने अनंत संसारना परिभ्रमणनुं कारण छे. –केम? कारण के आत्मामां ज्ञान, दर्शन वगेरे
अनंत गुणो छे तेनी रुचि अने आदर न करतां, एक चारित्र गुणना क्षणिक विकारनी अने संयोगनी रुचि
तथा आदर करीने आत्माना अनंत पवित्र गुणोनो अनादर कर्यो, तेथी ते अनंत संसार परिभ्रमणनुं कारण छे.
अने जो चैतन्यस्वभावनी रुचि करे, तेमां लीन थाय तो अनंतकाळ सुधी अनंत सुख प्रगटे. चैतन्यनी रुचि
कर्या वगर कदी शांति न थाय.