Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950).

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: ૨૦૨ : આત્મધર્મ–૮૨ : શ્રાવણ : ૨૦૦૬ :
श्री सद्गुरु – उपदेश
[राग तिलक छं्द]
समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिन्तन की घड़ी है;
भवउदधि तन अथिर नौका, बीच मंझधारा पड़ी है।
आत्म से है पृथक् तन धन, सोच रे! मन कर रहा क्या?
लखि अवस्था कर्म जड़की, बोल उनसे डर रहा क्या? समझ
. १.
ज्ञान–दर्शन–चेतना सम, और जगमें कौन है रे?
दे सके दुःख जो तुझे, वो शक्ति ऐसी कौन है रे?
‘कर्म सुख–दुःख दे रहे हैं, मान्यता ऐसी करी है;
दूर कर द्रष्टि पराधिन, चेत, शुद्ध श्रद्धान कर ले! समझ
. २.
जिस समय हो आत्मद्रष्टि, मोह थरथर कांपता है;
भाव की एकाग्रता लखि, छोड़ खुद ही भागता है;
ले समझ से काम या, फिर चतुर्गति ही में विचरले!
मोक्ष अरु संसार क्या है, फैसला खुद ही समझले;
दूरकर दुविधा हृदय से, फिर कहां धोखाघड़ी है! समझ
. ३.
सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी, सदा यह कह रहे हैं;
समझना खुद ही पड़ेगा, भाव तेरे बह रहे हैं।
शुभक्रिया को धर्म माना, भव इसी से धर रहा है;
है न पर से भाव तेरा, भाव खुद ही कर रहा है।
है निमित्त पर द्रष्टि तेरी, टेव कुछ ऐसी पड़ी है। समझ
. ४.
भाव की एकाग्रता रुचि, लीनता पुरुषार्थ करले;
मुक्ति–बंधनरूप क्या है, यह समझ उर बीच धरले।
भिन्न हूँ पर से सदा, इस मान्यता में लीन होजा;
द्रव्य–गुण–पर्याय–धु्रवता, आत्मसुख चिर नींद सोजा,
आत्म–अनुपम–अचल–गुणधर, शुद्ध रत्नत्रय जड़ी है। समझ
. ५.
[આ કાવ્ય, ‘વસ્તુવિજ્ઞાનસાર’ અને ‘મૂલમાં ભૂલ’ વગેરે
પુસ્તકો વાંચીને, કુરાવલી (મૈનપુરી યૂ. પી.)ના “નિર્ભય”
ગુણધરલાલ જૈને સોનગઢ આવ્યા પહેલાંં બનાવ્યું હતું અને પ્રથમ
ઈટાવામાં ગાયું હતું.
]