भवउदधि तन अथिर नौका, बीच मंझधारा पड़ी है।
आत्म से है पृथक् तन धन, सोच रे! मन कर रहा क्या?
लखि अवस्था कर्म जड़की, बोल उनसे डर रहा क्या? समझ
दे सके दुःख जो तुझे, वो शक्ति ऐसी कौन है रे?
‘कर्म सुख–दुःख दे रहे हैं, मान्यता ऐसी करी है;
दूर कर द्रष्टि पराधिन, चेत, शुद्ध श्रद्धान कर ले! समझ
भाव की एकाग्रता लखि, छोड़ खुद ही भागता है;
ले समझ से काम या, फिर चतुर्गति ही में विचरले!
मोक्ष अरु संसार क्या है, फैसला खुद ही समझले;
दूरकर दुविधा हृदय से, फिर कहां धोखाघड़ी है! समझ
समझना खुद ही पड़ेगा, भाव तेरे बह रहे हैं।
शुभक्रिया को धर्म माना, भव इसी से धर रहा है;
है न पर से भाव तेरा, भाव खुद ही कर रहा है।
है निमित्त पर द्रष्टि तेरी, टेव कुछ ऐसी पड़ी है। समझ
मुक्ति–बंधनरूप क्या है, यह समझ उर बीच धरले।
भिन्न हूँ पर से सदा, इस मान्यता में लीन होजा;
द्रव्य–गुण–पर्याय–धु्रवता, आत्मसुख चिर नींद सोजा,
आत्म–अनुपम–अचल–गुणधर, शुद्ध रत्नत्रय जड़ी है। समझ
ગુણધરલાલ જૈને સોનગઢ આવ્યા પહેલાંં બનાવ્યું હતું અને પ્રથમ
ઈટાવામાં ગાયું હતું.