श्रीमद् राजचंद्रजीने मात्र सात वर्षनी वये पूर्वना भवोनुं ज्ञान थयुं हतुं. तेमने ज्ञाननो उघाड घणो हतो.
चोथा पाठमां मानवदेहनी दुर्लभता बतावे छे अने ते मानवदेहनी उत्तमता कई रीते छे ते समजावे छे.
अने एने लीधे ज मानवदेहनी उत्तमता छे.
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्यो....
तेनाथी कांई मानवदेहनी उत्तमता ज्ञानीओए कही नथी. तेथी कह्युं छे के–
वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहि अहोहो! एक पळ तमने हवो.
किंमत कोडीनी पण नथी. आत्माना भान वगर बाह्य संयोगथी मीठास करीने संसार वधारीने मनुष्यभव हारी
जाय छे.
महत्ता नथी. रूपीया मळवा तेमां कांई वर्तमान डहापण नथी. जीवोने बहारना संयोग तो पूर्वना प्रारब्ध
अनुसार थया करे छे; कांई भगवान कोईने सुखी–दुःखी करता नथी, तेम ज संयोगनुं पण सुख के दुःख नथी,
जीव पोते पोतानी भूलथी पराश्रये दुःखी थाय छे, अने जो आत्मानी ओळखाण करीने स्वाश्रयभाव प्रगट करे
तो तेने पोताथी पोतानुं कल्याण थाय छे. हे जीव! अनंत काळे महा मोंघो आ मनुष्यदेह अने सत्समागम
मळ्यो छे, हवे तुं तारा आत्मानी समजण कर, समजण कर. आत्मानी समजण वगर अनंतअनंतकाळ निगोद
अने कीडी वगेरेना भवमां काढ्यो, त्यां तो सत्ना श्रवणनो पण अवकाश नथी. हवे आ दुर्लभ मनुष्यपणुं
पामीने आत्मानी समजणना रस्ता ले भाई! अंतरमां आत्मानो महिमा आववो जोईए. पैसा, स्त्री वगेरेनो
जे महिमा छे ते टळीने अंतरमां चैतन्यस्वरूपना महिमानो भास थवो जोईए. जेम पोतानी डूंटीमां रहेली
पोतामां ज पोतानी प्रभुता भरी छे, त्रण लोकनो नाथ परमात्मा थवानी ताकात तेनामां भरी छे, पण पामरने
पोतानी प्रभुतानो विश्वास बेसतो नथी, एटले पोतानी प्रभुतानो महिमा चूकीने बहारना पदार्थोने महत्ता
आपे छे, तेथी बहारना आश्रये संसारमां रखडे छे. आत्मानी समजण करवानो अवकाश मुख्यपणे आ
मनुष्यदेहमां छे. ज्यांसुधी आत्मतत्त्वना महिमाने जाण्यो नथी त्यांसुधी व्रत–तप–दान के जात्रा वगेरे