Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 10 of 21

background image
: श्रावण : २००६ : आत्मधर्म–८२ : २०९ :



श्रीमद् राजचंद्रजीने मात्र सात वर्षनी वये पूर्वना भवोनुं ज्ञान थयुं हतुं. तेमने ज्ञाननो उघाड घणो हतो.
सोळ वर्षनी नानी वयमां फक्त त्रण दिवसमां तेमणे आ मोक्षमाळाना १०८ पाठनी रचना करी छे. तेमां आ
चोथा पाठमां मानवदेहनी दुर्लभता बतावे छे अने ते मानवदेहनी उत्तमता कई रीते छे ते समजावे छे.
‘तमे सांभळ्‌युं तो हशे के विद्वानो मानवदेहने बीजा सघळा देह करतां उत्तम कहे छे; पण उत्तम कहेवानुं
कारण तमारा जाणवामां नहि होय, माटे ल्यो हुं कहुं.’
आ मनुष्यदेह अनंतकाळे मळे छे; तेमां पैसा वगेरे मळे ते कांई अपूर्व नथी, अने एनाथी कांई
आत्मानी महत्ता नथी. आत्मा अंतरमां ज्ञान–आनंदथी भरेलो पदार्थ छे तेनी समजण करवी ते अपूर्व छे.
अने एने लीधे ज मानवदेहनी उत्तमता छे.
विद्वानो मानवदेहने बीजा बधा देह करतां उत्तम कहे छे, पण ते शा माटे उत्तम छे? ते अहीं समजावे छे.
अमूल्य तत्त्वविचारमां पोते कहे छे के–
बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळ्‌यो
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्‌यो....
आ मानवदेह तो जड छे; पण मानवपणामां जीव सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप पवित्र भाव प्रगट करी
शके छे, तेथी देहने पण उपचारथी ‘शुभ देह’ कहेवाय छे. अनंत काळे आ मानवदेह मळ्‌यो छे, तेमां जो
आत्मानी समजण प्रगट करे तो तेने उत्तम कहेवाय छे. ए सिवाय लक्ष्मीना ढगला के मोटा अधिकार मळे
तेनाथी कांई मानवदेहनी उत्तमता ज्ञानीओए कही नथी. तेथी कह्युं छे के–
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो? शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहि अहोहो! एक पळ तमने हवो.
बहारमां लक्ष्मी वगेरे संयोग वध्या तेथी आत्मामां शुं वध्युं? ते तो विचारो. कांई बाह्य संयोगथी
आत्मानी मोटप नथी. मानवदेह पामीने जो शरीरथी जुदा आत्मानी ओळखाण न करे तो आ मनुष्यदेहनी
किंमत कोडीनी पण नथी. आत्माना भान वगर बाह्य संयोगथी मीठास करीने संसार वधारीने मनुष्यभव हारी
जाय छे.
आत्मानी जे अंतरनी चीज होय ते कदी आत्माथी जुदी न पडे. शरीर, पैसा, स्त्री, पुत्र वगेरे वस्तुओ
आत्मानी नथी, तेथी ते वस्तुओ परभवमां आत्मानी साथे जती नथी. लाखो रूपिया मळे तेथी कांई जीवनी
महत्ता नथी. रूपीया मळवा तेमां कांई वर्तमान डहापण नथी. जीवोने बहारना संयोग तो पूर्वना प्रारब्ध
अनुसार थया करे छे; कांई भगवान कोईने सुखी–दुःखी करता नथी, तेम ज संयोगनुं पण सुख के दुःख नथी,
जीव पोते पोतानी भूलथी पराश्रये दुःखी थाय छे, अने जो आत्मानी ओळखाण करीने स्वाश्रयभाव प्रगट करे
तो तेने पोताथी पोतानुं कल्याण थाय छे. हे जीव! अनंत काळे महा मोंघो आ मनुष्यदेह अने सत्समागम
मळ्‌यो छे, हवे तुं तारा आत्मानी समजण कर, समजण कर. आत्मानी समजण वगर अनंतअनंतकाळ निगोद
अने कीडी वगेरेना भवमां काढ्यो, त्यां तो सत्ना श्रवणनो पण अवकाश नथी. हवे आ दुर्लभ मनुष्यपणुं
पामीने आत्मानी समजणना रस्ता ले भाई! अंतरमां आत्मानो महिमा आववो जोईए. पैसा, स्त्री वगेरेनो
जे महिमा छे ते टळीने अंतरमां चैतन्यस्वरूपना महिमानो भास थवो जोईए. जेम पोतानी डूंटीमां रहेली
सुगंधी कस्तूरीनो विश्वास हरणियांने आवतो नथी एटले बहारमां ते सुगंध मानीने रखडे छे. तेम आ जीवमां
पोतामां ज पोतानी प्रभुता भरी छे, त्रण लोकनो नाथ परमात्मा थवानी ताकात तेनामां भरी छे, पण पामरने
पोतानी प्रभुतानो विश्वास बेसतो नथी, एटले पोतानी प्रभुतानो महिमा चूकीने बहारना पदार्थोने महत्ता
आपे छे, तेथी बहारना आश्रये संसारमां रखडे छे. आत्मानी समजण करवानो अवकाश मुख्यपणे आ
मनुष्यदेहमां छे. ज्यांसुधी आत्मतत्त्वना महिमाने जाण्यो नथी त्यांसुधी व्रत–तप–दान के जात्रा वगेरे