Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 21

background image
: २०४ : आत्मधर्म–८२ : श्रावण : २००६ :
सुवर्णपुरीमां मंगल – प्रवचन
[सौराष्ट्रमां विहार करीने सोनगढ पधार्या बाद, वीर सं. २४७६ ना अषाढ सुद ७ ना दिवसे
पू. गुरुदेवश्रीए करेलुं प्रथम मंगल – प्रवचन.]

अहीं मांगळिक तरीके आ समयसारनी २०६मी गाथा वंचाय छे–
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो उत्तम थशे.
आ मंगळनी गाथा छे, तेमां आत्माना उत्तम सुखनी वात आवी छे. आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! तुं
आमां नित्य रत अर्थात् प्रीतिवाळो था, आमां नित्य संतुष्ट था अने आनाथी तृप्त था; आम करवाथी तने
उत्तम सुख थशे.
हे भव्य! आत्मा ज्ञानस्वभाव छे. ज्ञान ते ज खरेखर आत्मा छे, विकार ते खरेखर आत्मा नथी. छतां
अनादिथी विकारने अने परने पोतानुं स्वरूप मानीने चोराशीना अवतारमां रखडे छे; पोताना ज्ञान अने
आनंद स्वभावने अनादिथी चूक्यो छे. जो तेनुं भान करे तो आनंद प्रगट्या वगर रहे नहि.
श्री आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! एटलो ज सत्य आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे, एम निर्णय करीने तुं
आत्मामां सदा प्रीतिवंत था. आत्मा शुं छे तेनो अत्यार सुधी निर्णय पण कर्यो नथी. अनादिथी विकारने
आत्मा मानीने तेनी रुचि करी छे. पण विकार विनानुं त्रिकाळी द्रव्य आत्मा छे ते ज्ञानमात्र छे, तेनी कदी रुचि
करी नथी.
पर्यायमां क्षणिक विकार वखते जो आत्मा द्रव्य स्वभावथी शुद्ध न होय तो शुद्धता प्रगटशे क्यांथी?
सर्वथा अशुद्धता ज होय तो अशुद्धतामांथी शुद्धता कदी प्रगटी शके नहि, शुद्धतामांथी शुद्धता प्रगटे. माटे क्षणिक
विकार वखते पण आत्मद्रव्य स्वभावथी शुद्ध छे. तेम ज, जो वर्तमान पर्यायमां क्षणिक अशुद्धता न होय तो आ
संसार न होय. माटे क्षणिक पर्यायमां वर्तमान अशुद्धता पण छे. तेमां क्षणिक अशुद्धतानी प्रीति जीवे करी छे
पण शुद्धद्रव्यनी प्रीति कदी करी नथी. शुद्धद्रव्यना ज आश्रये शुद्धता अने सुख प्रगटे छे. जड शरीर के विकारना
आश्रये सुख मळे एम कदी बनतुं नथी.
हुं ज्ञाता–द्रष्टा जाणनार छुं, जेटलुं ज्ञान छे तेटलो ज हुं छुं, विकार ते हुं नथी. हुं तो ज्ञान छुं ने पर तथा
विकार मारुं ज्ञेय छे, तेनाथी हुं भिन्न छुं. एम हे जीव! ज्ञानमात्र आत्मामां प्रीति कर, तेनो आश्रय कर.
स्वभावना आश्रय विना अनंत संसारमां तने क्यांय शांति न मळी.
सर्वज्ञ भगवाने नवतत्त्व कह्या छे, तेमां जीवतत्त्व कोने कहेवुं? जेटलुं ज्ञान छे तेटलो ज आत्मा छे. राग
ते जीवतत्त्व नथी, पण ज्ञान ते ज जीवतत्त्व छे. जड शरीरनी क्रिया ते अजीवतत्त्वमां आवे छे. हिंसादि भाव ते
पापतत्त्व छे, दया, व्रतादि भाव ते पुण्यतत्त्व छे, ते पुण्य ने पाप बंने आस्रवतत्त्व छे, ते विकारमां आत्मा
अटके ते बंध–तत्त्व छे. विकाररहित शुद्ध आत्मानुं ज्ञान अने एकाग्रता करवी ते संवर अने निर्जरा तत्त्व छे,
अने पूर्ण शुद्धता प्रगटे ते मोक्षतत्त्व छे. तेमां पुण्य–पाप विकार ते हुं एम अज्ञानी माने छे एटले के पुण्य–पाप
आस्रव ने बंधतत्त्वने ज ते जीवतत्त्व माने छे, ते ऊंधी रुचि छे; तेने कहे छे के पुण्य–पाप ते जीवतत्त्व नथी पण
जेटलुं ज्ञान छे तेटलुं ज जीवतत्त्व छे,–आम समजीने तुं ज्ञानमात्र आत्मानी रुचि कर.
‘हे भव्य! एटलो ज सत्य (परमार्थ स्वरूप) आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे–एम निश्चय करीने
ज्ञानमात्रमां ज सदाय रति (प्रीति, रुचि) पाम. ’ अहीं कह्युं के ज्ञान–स्वभाव छे ते ज आत्मा छे. कोई वखते
पण निमित्तनो के रागनो आश्रय करे ते आत्मा छे–एम नथी कह्युं. जेम केवळी भगवाननो आत्मा ज्ञानमय
छे, तेने रागादि के निमित्तनो आश्रय नथी; तेम केवळज्ञान साथे मेळवीने कहे छे के जेटलुं ज्ञान छे तेटलो ज
सत्य आत्मा छे. पुण्य–पापना विकल्प, ते कांई सत्य आत्मा नथी. देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प, ते
तरफनुं ज्ञान के पंचमहाव्रतना विकल्प–एवो जे व्यवहार रत्नत्रयनो भाव ते खरेखर आत्मा