Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००६ : आत्मधर्म–८२ : २०५ :
नथी, तेम ज ते खरेखर आत्मानी पर्याय पण नथी, केमके तेनी साथे आत्मानी अभेदता नथी. ज्ञाननी
अवस्था थाय ते ज आत्मानी पर्याय छे अने ते ज्ञान आत्मा साथे अभेद थतुं होवाथी ज्ञान ते ज आत्मा छे.
राग ते अनात्मा छे.
जड पदार्थो अने पुण्य–पाप जगतमां छे ज नहि–एम आचार्यदेव नथी कहेता, केमके जड अने पुण्य–पाप
छे त्यारे तो आत्मा तेनाथी जुदो छे–एम समजावे छे. सम्यग्दर्शन पहेलांं कषायनी मंदताथी विशुद्धि–लब्धि
वगेरे भले हो, पण ते आत्मा नथी तेम ज ते सम्यग्दर्शननुं खरुं कारण नथी, ते तो राग छे. ज्ञान ते ज आत्मा
छे एम निश्चय करवानी वात पहेलांं करी छे; जो ए निश्चय न करे तो सम्यग्दर्शन थतुं नथी. वीतराग थया
पहेलांं धर्मीने राग होय, पण तेने भान छे के आ राग छे ते सत्य आत्मा नथी ने आत्मामां तेनी अभेदता
थती नथी, तेथी ते खरेखर आत्मानी पर्याय नथी. जे पर्याय प्रगटीने आत्मा साथे अभेद थाय ते ज खरेखर
आत्मानी पर्याय छे.
रागादिभावो ससलानां शींगडांनी जेम जगतमां बिलकुल अभावरूप नथी, आत्मानी अवस्थामां एक
समय पूरता ते सत् छे पण आत्माना त्रिकाळी स्वभावनी अपेक्षाए ते असत् छे. रागादि रहित त्रिकाळ शुद्ध
ज्ञानस्वभाव समजाववा माटे, ‘रागादि ते आत्मानी पर्याय नथी’ एम कहेवामां आव्युं छे.
अहीं आचार्यदेवे कह्युं के केवळी भगवाननी जेम तारो आत्मा ज्ञान ज छे, एवा आत्मानी श्रद्धा कर तो
तेने उत्तम सुख थशे. ‘तने उत्तम सुख थशे’ एम अस्तिथी ज अहीं वात लीधी छे. अत्यार सुधी ईन्द्रियोना
विषयमां सुख मान्युं ते खरेखर सुख नथी. आत्मानी रुचि करीने तेमां लीन थतां अतीन्द्रिय सुख प्रगटे ते ज
खरुं सुख छे. अत्यार सुधी तने ते सुख कदी थयुं नथी. तो हवे ज्ञानस्वभावी आत्माने ओळखीने तेनी प्रीति
करवाथी तने उत्तम सुख थशे. ज्ञानमात्र आत्मानो निश्चय करीने तेनी ज सदाय रुचि कर. सदाय तेनी ज रुचि
करवानुं कह्युं छे, वच्चे क्यांय एक समय पण व्यवहारनी रुचि करवानुं नथी कह्युं. वच्चे राग अने व्यवहार होय
भले, पण तेनी रुचि न करीश. ‘सदाय’मांथी क्यो समय बाकी रही गयो? जो कोई समय पण आत्मानी रुचि
छोडीने व्यवहारनी रुचि करे तो ते आत्माने धर्मदशा टके नहि. व्यवहारनी रुचि तो अनादिथी अभव्य जीव
पण करे छे, तेनाथी कल्याण नथी.
पहेलांं आत्मानी रुचिनी वात लीधी छे. शरूआतमां बधो राग–व्यवहार टळी जतो नथी, राग–व्यवहार
होय छे पण रुचि बदली नांख. परनी अने व्यवहारनी प्रीति अनादिथी छे ते बदलीने ज्ञानमूर्ति आत्मानी
प्रीति कर. रागनो विकल्प ऊठे ते ज्ञान नथी पण ज्ञानथी भिन्न छे. जेटलुं ज्ञान छे तेटलो ज आत्मा छे. ज्ञान
कोईमां कांई फेरफार करतुं नथी, पण बधाने जाणे छे. जेटलुं ज्ञान तेटलो ज आत्मा एम कहीने ज्ञानने अने
आत्माने अभेद कर्या, ने रागने आत्माथी जुदो पाडयो. आवा आत्मानी ज सदाय प्रीति कर.
जीव पोतानी रुचि स्वतंत्रपणे पलटी शके छे तेथी ते पलटवानुं कह्युं. मोह कर्म खसे तो तने आत्मानी
रुचि थाय–एम कर्मनी वात न लीधी. तुं पोते निश्चय करीने आत्मानी सदाय रुचि पाम, एम कहेवामां
पर्यायनी स्वतंत्रता पण आवी गई.
रुचि पामवानुं कह्युं तेमां एम पण आव्युं के अत्यार सुधी आत्मानी रुचि पाम्यो नथी अने हवे नवी
रुचि पाम. वस्तुमां जो परिणमन न होय तो ए वात बनी शके नहि, तेथी परिणमन पण सिद्ध थयुं. अत्यार
सुधी ऊंधी रुचि छे ने सत् रुचि पाम्यो नथी, ते पलटीने हवे आत्मानो निर्णय करीने सदाय तेनी रुचि पाम.–
आम करवाथी हे भव्य! तने उत्तम सुख थशे.
अहीं, ‘तुं आत्मानी रुचि कर, तेथी तने उत्तम सुख थशे’ एम आदेश कर्यो छे, तो सामे ते वातने
झीलीने रुचि प्रगट करनार बीजो जीव छे. सामे पात्र जीवने लईने ज आचार्यदेव कथन करे छे के हे भव्य! जो
तुं आत्मा समजीने कल्याण प्रगट करवा खातर अमारी सन्मुख आव्यो हो तो एम निर्णय कर के जेटलुं ज्ञान
छे तेटलो ज आत्मा छे;
पुण्य–पाप ते सत्य आत्मा नथी, पण असत्य आत्मा छे एटले के आत्माना
परमार्थस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां पुण्य–पाप तेनामां छे ज नहि तेथी ते आत्मा नथी. ज्ञानस्वभाव ते ज आत्मा
छे. ज्ञानस्वभाव जाणवा सिवाय बीजुं शुं करे? ज्ञान कर्ता थईने कोई