Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २०६ : आत्मधर्म–८२ : श्रावण : २००६ :
परनुं कांई कार्य करे नहि तेम ज ज्ञान पोतामांथी विकारनी उत्पत्ति करे नहि. आवो ज्ञानमात्र आत्मा छे.
अनादिथी ज्ञान सिवाय बीजा उपर लक्ष करीने त्यां पोतापणुं मान्युं हतुं, अहीं आत्माने ‘ज्ञानमात्र’ कहीने
ज्ञान सिवाय बीजा उपरनुं लक्ष छोडावे छे ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां तेमां विकारनो ने परनो अभाव सिद्ध थाय छे,
पण ज्ञान सिवायना जे श्रद्धा–चारित्र–आनंद वगेरे अनंतगुणो छे ते तो ज्ञानमात्रमां ज अभेदपणे आवी
जाय छे.
ज्यारे ज्ञानमात्र आत्मा तरफ वळीने तेनो निर्णय कर्यो त्यारे क्षयोपशम लब्धि वगेरेने व्यवहारे
सम्यग्दर्शननुं कारण कहेवाय छे. व्यवहारना आधारे निश्चय टके छे–एम नथी. एक समय पण जो व्यवहारनी
रुचि करे तो आत्मा नहि समजाय. माटे व्यवहारनी प्रीति छोडीने सदाय ज्ञानस्वरूपी आत्मानी प्रीति कर.
जेम केवळज्ञानी भगवाननो आत्मा ज्ञानमात्र छे तेम हुं पण ज्ञानमात्र छुं–आम निर्णय करीने पोताना
ज्ञानस्वभावने ज स्वज्ञेय करतां आत्मानी सम्यक्श्रद्धा अने सम्यग्ज्ञान प्रगट्यां, त्यारे ते ज्ञानमां निमित्त
वगेरे व्यवहारे ज्ञेय थया; स्वसन्मुख वळतां ज्ञानसामर्थ्य प्रगट्युं त्यारे, ‘आ निमित्त हतुं’ एम निमित्तने
व्यवहारे ज्ञेय बनाव्युं. ज्ञान ज प्रगट न करे तो ज्ञान वगर ज्ञेय कोनुं? निमित्त छे ते कर्ता तो नथी पण
अज्ञानीने तो निमित्त खरेखर ज्ञेय पण नथी. केमके ज्ञान वगर ज्ञेय कोनुं? जेम लोकालोक तो सदाय छे, पण
ज्यारे केवळज्ञान प्रगट कर्युं त्यारे लोकालोक तेना ज्ञेय थया. केवळज्ञान थया पहेलांं लोकालोक तेनुं ज्ञेय न हतुं
पण स्वाश्रये केवळज्ञान थयुं त्यारे ते तेनुं ज्ञेय थयुं. तेम नीचली दशामां पण खरेखर तो रागादि अने निमित्तो
ते ज्ञाननुं ज्ञेय ज छे, पण खरेखर तेने ज्ञाननुं ज्ञेय क्यारे कहेवाय? के हुं ते राग अने निमित्तोथी भिन्न छुं–एम
स्वसन्मुख थईने जो आत्मानुं ज्ञान प्रगट करे तो ते ज्ञान राग अने निमित्तने परज्ञेय तरीके यथार्थ जाणे, अने
त्यारे तेने ज्ञेय कहेवाय. रागादि के निमित्त ते ज्ञानना कर्ता तो नथी पण अज्ञानीने तो ते खरेखर ज्ञाननुं ज्ञेय
पण नथी, केमके तेनामां स्वाश्रित ज्ञान ज खील्युं नथी, तेनुं ज्ञान रागमां ज एकाकार थई जतुं होवाथी, रागने
ज्ञेय करवानी ताकात ज तेना ज्ञानमां खीली नथी. रागथी जुदो पड्या वगर रागने ज्ञेय करवानी ज्ञाननी
ताकात खीले नहि. राग अने निमित्तथी भिन्न आत्मस्वभावने जाण्या वगर रागने राग तरीके अने निमित्तने
निमित्त तरीके जाणशे कोण? जाणनारुं ज्ञान तो राग अने निमित्तनी रुचिमां अटकी पड्युं छे. आत्मानी रुचि
तरफ वळ्‌या वगर, अने राग तथा निमित्तनी रुचि टळ्‌या वगर निमित्तनुं अने व्यवहारनुं साचुं ज्ञान थाय
नहि. ज्यारे स्वाश्रये ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने ज्ञानस्वभावने ज स्वज्ञेय कर्यो त्यारे स्व–पर प्रकाशक
ज्ञानसामर्थ्य खीलतां निमित्त वगेरे पण तेना व्यवहारे ज्ञेय थयां.
हे भाई! पहेलांं हुं सत्य ज्ञानस्वभाव छुं–एम प्रीति करीने हा तो पाड. तारा ज्ञानस्वभावने पुण्य–पाप
विकल्प पण खरेखर तो ज्ञेयपणे ज छे. पण अज्ञानथी पर्यायबुद्धिमां तेनी साथे कर्ताकर्मपणुं मान्युं हतुं त्यारे ते
यथार्थपणे ज्ञेय थता न हता. हवे स्वसन्मुख रुचिथी स्वभावने जाणतां तारा ज्ञानमां ते ज्ञेय थयुं. आवो
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतां शुद्धता प्रगटे छे ने अशुद्धता तथा कर्म सहेजे टळता जाय छे, तेनुं नाम निर्जरा छे.
ज्ञानमात्र आत्मानी रुचि थतां मिथ्यारुचिनो तेम ज मिथ्यात्व कर्मनो व्यय थई जाय छे; तेनो व्यय करुं–एम
नथी, पण अहीं स्वभाव तरफनी रुचिनो उत्पाद थतां ते पर तरफनी रुचिनो उत्पाद ज थतो नथी.
परना आश्रयवाळो कोई पण भाव ते आत्मा नथी; परना आश्रय विनानो ज्ञानस्वभाव ते ज आत्मा
छे. तेनो निर्णय अने रुचि करतां सम्यग्दर्शननो उत्पाद ने मिथ्यात्वनो व्यय थाय छे, तथा ते वखते मिथ्यात्व
तेम ज अनंतानुबंधी कषाय वगेरे कर्मोनी प्रकृतिओने पलटी जवानो काळ तेना कारणे होय ज छे. आत्मा ते
जड कर्मनी दशानो कर्ता नथी, छतां निमित्तनैमित्तिक संबंध एवो छे के आत्मा सम्यग्दर्शन प्रगट करे त्यारे
मिथ्यात्वकर्मनो अभाव न थाय एम बने नहि.
पहेलांं व्यवहारनी रुचि हती अने व्यवहारने ज्ञाननुं कारण मानतो त्यारे तो ते व्यवहार ज्ञाननुं ज्ञेय
पण थतो न हतो, हवे ज्ञाननी रुचिथी पोतामां ज्ञाननी ताकात खीली त्यारे व्यवहार ते ज्ञाननुं ज्ञेय थयो.
रागने अने व्यवहारने ज्ञाननुं कार्य मानतो अने तेनाथी ज्ञान थशे एम मानतो, त्यारे तो राग अने ज्ञान
वच्चे भेद ज