Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००६ : आत्मधर्म–८२ : २०७ :
पाडयो न हतो, हवे ज्ञान ते आत्मा ने राग ते आत्मा नहि –एम भेद पाडीने आत्मा तरफ वळतां सम्यग्ज्ञान
थयुं त्यारे रागने राग तरीके जाण्यो, अने राग तेना ज्ञाननुं ज्ञेय थयो.
जेम कोई आंख पासे रेती उपडाववा मांगे, तो आंखनो स्वभाव रेतीने उपाडवानो नथी, ने रेतीनो
स्वभाव आंखथी उपडवानो नथी. तेम अज्ञानी जीव ज्ञान पासे विकारनुं कार्य करावे छे–ज्ञानने विकारनुं कर्ता
माने छे. परंतु आंखनी जेम ज्ञाननो स्वभाव रागादिनो कर्ता थवानो नथी, ने रागादिनो स्वभाव ज्ञाननुं कार्य
थवानो नथी. रागने जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे, ने ज्ञानमां ज्ञेय थवानो रागनो स्वभाव छे. जो ज्ञान अने
राग एक होय तो कदी रागनी रुचि टळीने ज्ञाननी रुचि थाय नहि; पण ते बंने जुदा छे तेथी रागनी रुचि
टाळीने ज्ञाननी रुचि करवानुं कह्युं. जुओ, आ मांगळिकमां सरस वात आवी छे. अनंतकाळमां कदी आत्मानी
प्रीति करी नथी, आत्मानी प्रीति प्रगट करीने तेमां संतुष्ट थवुं ते अपूर्व मंगळ छे.
जेने वर्तमान विकार तरफनी प्रीति छे तेने तेमांथी स्व तरफ वाळवा कहे छे के आ आत्मामां तुं प्रीतिवंत
था; अनादिनी तारी रुचिनी दिशाने फेरवी नांख के हुं ज्ञान छुं. रुचि पलटाववामां कोई बीजुं कारण नथी.
ज्ञानमात्रनी रुचि छूटीने कोई समय पण व्यवहारनी रुचि रहे तो तेने धर्म रहेतो नथी. कोईने एम लागे के
आमां व्यवहार ऊडी जाय छे,–तो ते बराबर नथी. आमां ज निश्चय अने व्यवहारनुं यथार्थ ज्ञान आवे छे.
व्यवहार छे तेनी क्यां ना पाडे छे? पण ते व्यवहारना आश्रयनी बुद्धि छोडावे छे. अज्ञानी तो व्यवहारने
निश्चयनुं कारण माने छे एटले तेने व्यवहार व्यवहार तरीके न रह्यो पण व्यवहारे ज निश्चयनुं कार्य कर्युं एटले
व्यवहार पोते निश्चय थई गयो. तेम ज निश्चयनुं काम व्यवहारे कर्युं एटले तेने निश्चय पण न रह्यो. ए रीते
अज्ञानीने निश्चय अने व्यवहार बंने ऊडी जाय छे. ज्ञानी तो निश्चयनो आश्रय राखीने व्यवहारने जेम छे तेम
जाणे छे, व्यवहारने निश्चयनुं कारण मानता नथी, तेथी तेमने ज निश्चय अने व्यवहार बंनेनुं यथार्थ ज्ञान छे.
ज्ञानमात्र आत्मस्वभावनी प्रीति करतां सम्यग्दर्शन प्रगट्युं ते निश्चयना आश्रये प्रगट्युं छे. निश्चयना
आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं त्यारे पूर्वनी पांच लब्धिने सम्यग्दर्शननुं कारण व्यवहारे कहेवायुं. सम्यग्दर्शन
थतां पांच लब्धिनो अभाव थाय छे, तेथी तेने सम्यग्दर्शननुं कारण कहेवुं ते आरोपथी छे. आत्मा ज्ञानमात्र छे
एम कहेतां रागादिभावो भिन्न ज्ञेय तरीके रहे छे, पण ते रागादि कारण अने आत्मानुं सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र कार्य–एम नथी.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते मोक्षनुं कारण छे, पण ते प्रगटे क्यारे? ज्यारे द्रव्यनो आश्रय कर्यो त्यारे ते
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट्या छे, माटे तेनो आधार तो द्रव्य छे. ते द्रव्यनी प्रीति करवी तें सम्यग्दर्शन छे.
आत्मा कर्ता अने ज्ञानस्वभावनी रुचि करवी ते तेनी पहेली धर्मक्रिया छे. स्वभावनी रुचि करी त्यां,
राग होवा छतां ते स्वभावथी बीजी चीज छे एम ज्ञान जाणे छे, ते व्यवहार छे. ज्ञानना आश्रये कल्याण थाय
ने पुण्यना आश्रये पण कल्याण थाय–एवुं अनेकांतनुं स्वरूप नथी, पण ज्ञानना ज आश्रये कल्याण थाय ने
पुण्यना आश्रये कल्याण न थाय–एवो अनेकांत छे. ज्ञानस्वभावी आत्मानी रुचि करवी ते ज कल्याणनो पंथ
छे. स्वतंत्र रुचि पलटाववानी वेदना पोते न करे तो कोई कराववा समर्थ नथी.
पहेलांं ज्ञानमात्र आत्मानी रुचि करवानी वात करी, हवे रुचि पछी बीजी वात करे छे. कोई कहे के रुचि
पछी शुं करवुं? तो कहे छे के–जे स्वभावनी रुचि करी तेमां ज तुं संतुष्ट था. संतोष ते चारित्र छे, एटले रुचि
पछी चारित्र पण तेमां ज छे. “एटलुं ज सत्य कल्याण छे के जेटलुं आ ज्ञान छे–एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी
ज सदाय संतोष पाम.” अन्यनी ईच्छा तोड–एम नास्तिथी न कहेतां, ज्ञानमात्रमां ज संतुष्ट था–एम अस्तिथी
वात लीधी छे. ज्ञानमात्रमां संतुष्ट थतां ईच्छा विलय पामी जाय छे. पहेलांं परनी रुचि करीने, परमां संतोष
मानतो ते अकल्याण हतुं, हवे ते छोडीने आत्मस्वभावनी रुचि करीने तेमां संतुष्ट थयो ते कल्याण छे. रुचिनी
दिशानो फेर हतो तेथी दशा सुधरती न हती, रुचिनी दिशा पलटतां फडाक दशा पण पलटी गई.
आत्मा सिवाय बीजी चीजो, व्यवहार वगेरे छे, अने तेमां संतोष मानीने जीव रोकाई गयो छे, त्यारे