चैतन्यतत्त्व ने परथी तो कल्याण नथी, अशुभभावथी के शुभभावथी पण कल्याण नथी, तथा अधूरी दशा
टाळीने पूरी दशा प्रगट करुं–एम जो अवस्थानो ज आश्रय करीने अटके तो पण स्वभावमां वळतां ते अटकावे
छे एटले विकारनी उत्पत्ति थाय छे. अने ‘हुं ज्ञान’ ‘हुं दर्शन’–एवा गुणभेदना द्वैतना विचारथी पण
आत्मानुं कल्याण थतुं नथी.
पाणी लाववानुं कहेता नथी, केमके तेनामां तेवी ताकात नथी. तेम आ चैतन्यस्वभाव समजवानो उपदेश जडने
के एकेन्द्रियादिने देता नथी पण जेनामां चैतन्यस्वभावने समजवानी ताकात छे तेने ज उपदेश अपाय छे.
तारामां समजवानी ताकात छे एम जाणीने ज्ञानी कहे छे के तुं आत्माने समज. आम होवा छतां जे कहे छे के
‘आ वात अमने समजाय तेवी नथी,’ तो ते पोतानी चैतन्यशक्तिनो तेम ज ज्ञानीओनो अनादर करनार छे.
अंतरमां चैतन्यतत्त्व शुं छे तेने समज्या वगर जीव पुण्यपाप करीने अनंतवार स्वर्गमां ने नरकमां गयो छे,
मोटो राजा तेम ज भिखारी पण अनंतवार थयो छे, ते कांई नवुं नथी. पुण्य–पापरहित आत्मस्वभाव शुं छे
तेनी समजण अपूर्व छे, पूर्वे एक सेकंड मात्र पण आत्मानी समजण करी नथी. जेम डुंगर उपर वीजळी पडे
अने तेना सेंकडो टुकडा थई जाय पछी ते रेणथी भेगा थाय नहि, तेम जो एक सेकंड पण आत्मस्वभावनी साची
समजण करे तो तेनी मुक्ति थया विना रहे नहि अने फरीथी तेने अवतार थाय नहि.
जोर न जोतां भेंसनुं जोर भाळे छे; तेम लोको बहारना संयोगथी, बहारना वेषथी ने बहारना त्यागथी तेम ज
शुभरागथी चैतन्यना धर्मनुं माप काढे छे, पण धर्मीने अंतरमां धु्रव चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि प्रगटी छे ते अपूर्व
धर्मने तेओ ओळखता नथी. धर्म कोई बहारनी क्रियामां के पुण्यमां नथी पण अंतरस्वभावनी समजण करीने
तेनी श्रद्धा–ज्ञान करवा तेमां धर्म छे.
तेनामां क्षमागुण नथी. जीवमां क्रोध थाय छे ते अंदर त्रिकाळी क्षमागुणनी हयाती बतावे छे. ते क्षमागुणनी
विकृति थाय त्यारे क्रोध थाय छे. जडमां क्षमागुण नथी तेथी तेनी विकृतिरूप क्रोध नथी.
द्वेष रहित चैतन्य स्वभावनी रुचि थया पछी, अल्प रति–अरति थाय छतां ते हुं नथी,–एम ज्ञानी जाणे छे;
अनुकूळ के प्रतिकूळ संयोगने लीधे तो रागद्वेष थता नथी, पण पोतानी असावधानीथी थाय छे. ते राग–द्वेषना
भावो मारा स्वभावथी द्वैत छे–अन्य छे, ते मारो स्वभाव नथी. मारा एकत्व चैतन्यस्वभावना ज आश्रये धर्म
अने मुक्ति थाय छे.
मांडयो हशे तो धर्म थशे’–एम नथी. बाह्य संयोग बनवो ते प्रारब्धकर्मने अनुसार बने छे. पण धर्म तो
आत्माना पुरुषार्थ अनुसार थाय छे. प्रारब्धकर्म अने आत्मा बंने जुदी चीज छे; एकनो बीजामां अभाव छे.
जो आत्मा अने कर्म बंनेनो एकबीजामां अभाव न होय तो बंनेनुं भिन्न अस्तित्व रहेतुं नथी. आत्मा अने कर्म
बंने चीज छे खरी, पण ‘आ कर्म छे ने हुं आत्मा छुं’ एम बेना ज विचार कर्या करे, ने कर्मनुं लक्ष छोडीने
आत्माना एकत्वस्वभावमां वळे नहीं, तो राग–द्वेषनी उत्पत्ति थाय छे ने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगटतां
नथी. ए रीते, बंध अने मोक्ष, राग अने द्वेष, तथा कर्म अने आत्मा–एवा द्वैतनी बुद्धि छोडीने अखंड
आत्मानी श्रद्धा, ज्ञान तथा तेमां लीनता करतां बंध छूटीने मुक्ति थाय छे.