श्रद्धा–ज्ञान न होय एवा अज्ञानीने वक्ता तरीके पण गणवामां आवतो नथी तो तेनी वाणी देशनालब्धिनुं
कारण शी रीते थाय? वळी उपरमां चोकखुं कह्युं छे के जे पोते अश्रद्धाळुं होय ते अन्यने श्रद्धाळुं करी शके नहि
एटले के तेना उपदेशथी बीजा जीवने देशनालब्धि थई शके नहि. वळी, कोई एम माने के अज्ञानीने
व्यवहारश्रद्धान होय छे तेथी तेनी वाणीथी देशनालब्धि थई शके, तो ए वात पण यथार्थ नथी, केमके आगळ
जतां ‘श्रद्धान ज सर्व धर्मनुं मूळ छे’–एम लख्युं छे, तेथी नक्की थाय छे के अहीं परमार्थ सम्यक्श्रद्धाने ज
श्रद्धान गणवामां आव्युं छे, अने ए श्रद्धा ज सर्व धर्मनुं मूळ छे. अज्ञानीने जे व्यवहारश्रद्धान होय छे तेने सर्व
धर्मनुं मूळ कही शकाय नहि. तेम ज त्यारपछी सम्यग्ज्ञान होवानी पण वात करी छे.
वाणी देशनालब्धिनुं कारण थई शकती नथी–एम समजी लेवुं.
नहि करी होवाथी (भिन्न आत्मानुं एकपणुं) नथी पूर्वे कदी सांभळवामां आव्युं, नथी कदी परिचयमां आव्युं
अने नथी कदी अनुभवमां आव्युं. तेथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं सुलभ नथी.”
उपासना करवानी वात लीधी तेमां देशनालब्धि आवी जाय छे. अज्ञानीना उपदेशथी पण जो देशनालब्धि थई
जती होय तो ‘आत्मज्ञानीनी सेवा’ नी वात आचार्य देव शा माटे करे? अहीं अनादि अज्ञानीने ज्ञानी
बनवानी वात लीधी छे, तेथी देशनालब्धि ज्ञानी पासेथी ज होय–ए वात मूकी छे.
ज..... ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समजावे छे त्यारे तुरत ज...समजी जाय छे.”
आचार्यादिकनो ज उपदेश देशनालब्धिना कारणरूप थाय छे. जे सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार न होय
एना अज्ञानी जीवोनो उपदेश कदी देशनालब्धिनां कारणरूप थतो नथी. देशना लब्धिप्रकरणमां ज्यां ज्यां
आचार्य वगेरे शब्द वापर्या होय त्यां त्यां बधे ठेकाणे ‘सम्यग्ज्ञानीरूपी महारथने चलावनार एवुं विशेषण, न
कह्युं होय तोपण समजी लेवुं.
मिथ्याद्रष्टिना मुखथी सुणी होय, के शास्त्रमांथी वांची होय. सर्वे वाणी सम्यग्दर्शन प्राप्त करवामां देशनालब्धिनुं
कारण थई शके छे” × × × वळी ते कहे छे के “अभव्य द्वारा यथार्थ प्रतिपादन करनारी वाणी पण सम्यग्दर्शन
प्राप्त करवामां देशनालब्धिनुं कारण थई शके छे. आत्मा एवो पराधीन नथी के बीजा सम्यग्द्रष्टि आत्मानी
सहाय विना (–देशना विना) पोतानुं कल्याण न करी न शके.”–आ मान्यता असत्य छे. आ लेखमां आपेला
लब्धिसार, षट्खंडागम, समयसार वगेरेना कथनो साथे विचारतां आ मान्यतानुं अयथार्थपणुं जणाया वगर
रहेशे नहि.