Atmadharma magazine - Ank 083
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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ः२२६ः आत्मधर्मः ८३
बीजा सम्यग्द्रष्टि आत्मानी सहाय विना (–देशना विना) ते पोतानुं कल्याण न करी शके’–आवी तेनी
दलील छे ते न्यायनी कसोटीए चडावतां तद्न भूलवाळी मालूम पडे छे. केमके ‘देशनालब्धिमां ज्ञानीनी
वाणी ज निमित्त होय’–ए सिद्धांतमांथी कांई एवो आशय नथी नीकळतो के जीव पराधीन छे. परंतुं
देशनालब्धिनुं ए स्वरूप तो निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान करावे छे. माटे देशनालब्धिना स्वरूपमां, जीवने
सम्यग्द्रष्टि गुरुनी सहायता लेवी पडे छे के जीव पराधीन थई जाय छे–ए वात साची नथी. जीवना
उपादानमां ज्यारे सम्यग्दर्शननी लायकात होय छे त्यारे तेने सम्यग्द्रष्टि गुरुनो उपदेश स्वयमेव निमित्तरूपे
होय छे. देशनालब्धिनुं निमित्त थवानी लायकात ज्ञानीना उपदेशमां ज होय छे, अज्ञानीनी वाणीमां के बीजा
जडमां ते प्रकारनी लायकात नथी. माटे देशनालब्धिमां सम्यग्द्रष्टि सद्गुरुनो उपदेश ज निमित्तपणे होय छे,–
नहि के अज्ञानीने वाणी के शास्त्रनुं वांचन. आ प्रमाणे देशनालब्धिमां निमित्त तरीकेनी योग्यता कया
पदार्थमां छे ते बताववामां आव्युं छे. तेमां जीवनी पराधीनता नथी, पण तेमां तो ज्ञानीनी यथार्थता छे.
पोताना कल्याण माटे बीजा ज्ञानीनी सहाय लेवी पडे के पराधीनता करवी पडे–एवो एनो अर्थ नथी. पण
सम्यग्दर्शन माटे सम्यग्द्रष्टि ज देशना निमित्त होय– एम निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान छे. अज्ञानी वगेरेनी
वाणीने पण जे देशनालब्धिना निमित्त तरीके स्वीकारे छे तेने निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान नथी, अने खरेखर
पोताना उपादानमां पण तेने देशना लब्धिनो यथार्थभाव प्रगटयो नथी.
(१०) मिथ्याद्रष्टि जीव शास्त्रनो तो अभ्यास करे छे पण पोते यथार्थ निर्णय करी अनुभव करतो
नथी एटले ते अज्ञानी ज रहे छे. ए प्रमाणे सम्यग्ज्ञान अर्थे थती तेनी प्रवृत्तिमां अयथार्थता बताववा माटे
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. २४० मां कह्युं छे के–“कोई जीव ए शास्त्रनो पण अभ्यास करे छे परंतु ज्यां जेम
लख्युं छे तेम पोते निर्णय करी पोताने पोतारूप, परने पररूप तथा आस्रवादिकने आस्रवादिरूप श्रद्धान
करतो नथी. कदापि मुखथी तो यथावत् निरूपण एवुं पण करे के जेना उपदेशथी अन्य जीव सम्यग्द्रष्टि थई
जाय.”
उपरना कथननो आशय शुं छे ते नहि समजनार कोई एम कहे छे के ‘द्रव्यलिंगी अज्ञानीने भले
सम्यग्ज्ञान न होय तोपण तेना उपदेशथी देशनालब्धि थई शके.’ परंतु तेओ ए मुदे भूली जाय छे के त्यां
चालता विषयमां देशनालब्धिनुं स्वरूप नथी बताववुं, पण मिथ्याद्रष्टि जीव शास्त्रनो अभ्यास करवा छतां
अज्ञानी केम रहे छे ते बताववुं छे. अज्ञानी–द्रव्यलिंगीने शास्त्रनो अभ्यास ज नथी होतो–एम कोई माने
तो तेने समजाव्युं के अज्ञानी शास्त्रनो अभ्यास तो करे छे पण पोते अनुभव करतो नथी. माटे ते कथननो
आशय एम बिलकुल न समजवो के अज्ञानीना उपदेशथी पण देशनालब्धि थाय! पण श्री लब्धिसार अने
श्री षट्खंडागमनी उपर्युक्त टीका साथे मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. २४० ना ते कथनने वांचीने तेनो एवो आशय
समजवो के जे जीवने पूर्वे कोई ज्ञानी पासेथी देशनालब्धि थई गई होय ने तेना संस्कारनुं बळ होय ते जीव
वर्तमान कोई द्रव्यलिंगी–अज्ञानीनो उपदेश सांभळी, पोते विचार करी, पूर्वे प्राप्त करेली देशनालब्धिना
बळे, द्रव्यलिंगी मिथ्याद्रष्टि उपदेशकने न होय एवुं यथार्थ भावभासन पोते प्रगट करे छे. त्यां तेने
देशनालब्धिना कारणरूप वर्तमान मिथ्याद्रष्टिनो उपदेश नथी परंतु पूर्वे सम्यग्द्रष्टिनो उपदेश ज
देशनालब्धिना कारणरूप छे.
वळी त्यां (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. २४० मां) आ प्रमाणे द्रष्टांत आप्युं छे के–“जेम कोई छोकरो
स्त्रीनो स्वांग करी एवुं गायन करे के जे सांभळीने अन्य पुरुष–स्त्री कामरूप थई जाय, पण आ तो जेवुं
शीख्यो तेवुं कहे छे परंतु तेनो भाव कांई तेने भासतो नथी तेथी पोते कामासक्त थतो नथी; तेम आ
(शास्त्राभ्यास करनार अज्ञानी) जेवुं लख्युं छे तेवो उपदेश दे छे परंतु पोते अनुभव करतो नथी× × ×
तेथी सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.”
हवे त्यां द्रष्टांतमां अन्य पुरुष–स्त्री कामरूप थई जवानुं लख्युं छे ते उपरथी ‘अज्ञानीना उपदेशथी
बीजा जीवो देशनालब्धि पामी जाय छे’ एवो सिद्धांत तो नथी नीकळतो, परंतु ते उपरथी तो एम सिद्ध थाय छे
के जे पुरुष अने स्त्रीने कामना पूर्व संस्कार हता ते ज कामरूप थाय छे, पण जे बाळकने कामना संस्कार नथी ते
कामरूप थतो नथी. तेम अज्ञानीनो उपदेश सांभळता पण जेने पूर्वनी ज्ञानीना उपदेशथी