Atmadharma magazine - Ank 083
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 19

background image
ः २२८ः आत्मधर्मः ८३
–सिद्धिनो उपाय–
आत्मानो जाणवानो स्वभाव शुद्ध निर्मळ छे. क्रोधादि विकार तेनो स्वभाव नथी. जेम स्फटिकमां
लालकाळी झांई देखाय छे ते तेनी अवस्थामां विकार छे, अने स्फटिकनो मूळस्वभाव शुद्ध ऊजळो छे. तेम
आत्मामां दया के क्रोध वगेरे भावो थाय ते विकार छे, आत्मा मूळ स्वभावथी शुद्ध ज्ञानमय छे.
आत्मा अनादिअनंत स्वयंसिद्ध तत्त्व छे, ते कोई संयोगथी बनेलो नथी तेम ज नाश पामीने कोईमां
भळी जतो नथी. दरेक आत्मामां पूरेपूरुं ज्ञानसामर्थ्य भर्युं छे. जेम लींडीपीपरमां चोसठ पोरी तीखाश भरी छे;
एमने एम सीधी खाय तो तेनो स्वाद न आवे पण घसतां ते तीखास प्रगटे छे. अंदर जे शक्ति भरी हती ते
ज प्रगटी छे; जो स्वभावमां न होय तो संयोगमांथी आवे नहि. अने निमित्त आव्युं माटे ते तीखाश प्रगटी –
एम पण नथी. पदार्थमां शक्तिरूप स्वभाव त्रिकाळ छे, ते प्रगट थवाना काळे योग्य निमित्तनो योग सहज बनी
जाय छे. संयोगमांथी स्वभाव प्रगटतो नथी; पण जेने वस्तुनो स्वभाव नथी देखातो अने जेनी संयोग उपर
द्रष्टि छे, ते संयोगी निमित्तथी स्वभाव प्रगटवानुं माने छे. लींडीपीपरना द्रष्टांते आत्मामां पण समजवुं के,
आत्मामां पूर्णज्ञान शक्तिरूपे छे, तेनो विश्वास करीने एकाग्र थतां अवस्थामां पूर्णज्ञान प्रगट थाय छे. ते ज्ञान
बहारना संयोगोमांथी आव्युं नथी, पण स्वभावशक्तिमां हतुं, तेमांथी ज प्रगटयुं छे. पोताना स्वभावने न
कबूलतां, संयोगने जुए छे ते जीवने कदी निर्मळदशा प्रगटती नथी.
द्रव्यस्वभावे आत्मा अनादिअनंत नित्य एकरूप शुद्ध होवा छतां अनित्य अवस्थामां विकार छे. अहीं
आचार्य भगवान कहे छे के आत्माना एकरूप स्वभावने आश्रित बुद्धि ते सिद्धिनो उपाय छे; ए सिवाय बंध
अने मोक्ष, राग अने द्वेष, कर्म अने आत्मा तथा शुभ अने अशुभ–ए प्रमाणे द्वैतआश्रित जे बुद्धि छे ते
असिद्धि छे अर्थात् ते बुद्धि निजानंद शुद्ध अद्वैतस्वरूपने रोकनारी छे. बंध टाळुं ने मोक्ष करुं–एम अवस्थाना
भंग–भेद आश्रित विकल्पमां ज अटके ने अभेद एक स्वभावसन्मुख न थाय तो जीवने धर्मदशा प्रगटे नहि.
शरीर–मन–वाणी हुं, अने पुण्य–पाप विकार जेटलो ज हुं–एम मानीने अनादिथी जीव पोताना
सहजस्वभावने भूल्यो छे. जो ए भूल न होय तो वर्तमानमां प्रगट आनंद होवो जोईए; केम के वस्तु पोते
आनंदस्वरूप छे, तेने पोताना स्वभावथी दुःख न होय. पण तेनुं भान भूल्यो छे तेथी ते आनंद प्रगट नथी
अने परमां आनंद शोधे छे. अवस्थामां भूल अने विकार अनादिथी होवा छतां स्वभाव तेमां भळी गयो नथी.
जेम शेरडीमां रस अने कूचा मूळथी भेगा होवा छतां, स्वभावथी जुदा होवाथी जुदा पडी जाय छे, तलमां तेल
अने खोळ मूळथी भेगा होवा छतां, स्वभावे जुदा होवाथी जुदा पडी जाय छे, तेम आत्मामां सर्वज्ञस्वभाव तेम
ज विकार–बंने अनादिथी छे, पण परमार्थे बंने जुदा छे. आत्मानो स्वभाव विकाररूप थई गयो नथी. ते
स्वभावना भानथी अने एकाग्रताथी विकार टळीने सर्वज्ञता प्रगट थाय छे.
जेम स्फटिकमां राता–काळा फूलना संयोगे राती–काळी झांई पडे छे, ते तेना स्वभावमां नथी, तेम
ज्ञानस्वरूपी आत्मानी अवस्थामां शुभ के अशुभ विकार थाय छे ते नवा थयेला छे, आत्माना स्वभावमां
नथी. हिंसा, चोरी वगेरे पापभाव छे अने दया–दान वगेरे पुण्य भाव छे, ते बंने दोष छे, आत्मानो खरो
स्वभाव नथी. तेम ज प्रारब्धकर्मे पण ते दोष कराव्यो नथी; पोतानो सत्–चित्–आनंद स्वभाव छे तेनुं
यथार्थ होवापणुं भूलीने बीजा प्रकारे मान्युं तेथी ज अवस्थामां दोष पोते कर्यो छे. वस्तुस्वभाव जेम छे तेम
न्यायथी समजवो जोईए. न्याय शब्दमां ‘
नी’ धातु छे, नी एटले दोरी जवुं, ज्ञानने आत्मस्वभाव तरफ
लई जवुं ते ज न्याय छे.
चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा ज्ञाननो बिंब छे. जेम स्वच्छ स्फटिकमां झांई ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी,
तेम ज्ञायकबिंब आत्मामां विकार ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी. पोते ज्ञान–आनंद स्वभावी परिपूर्ण पदार्थ होवा
छतां बीजी रीते पोतानुं अस्तित्व मानी लीधुं छे. रागादि