Atmadharma magazine - Ank 083
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः २४७६ः २२९ः
क्षणिक विकारपणे ज पोतानुं अस्तित्व कबूले छे अने मारे शरीर, पैसा वगेरे पर वगर चाले नहि–एम माने
छे, ते मान्यतामां परनी ओशियाळ अने भिखारापणुं छे. ‘आत्मा छे’ एम स्थूळपणे तो आत्मानुं अस्तित्व
आस्तिक लोको माने छे, परंतु जे रीते पोतानुं अस्तित्व छे ते रीते यथार्थपणे कदी जाण्युं नथी, पण विपरीतपणे
मान्युं छे.
दरेक आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, पदार्थोने जाणवानो तेनो स्वभाव छे; तेमां विकार करे तो आत्मा इच्छा
करे, परंतु शरीर वगेरे पदार्थोमां ते कांई फेरफार करी शकतो नथी. आत्मा कर्ता अने जडमां तेनुं कार्य–एम कदी
बनतुं नथी. कर्तानुं इष्ट ते कर्म छे, एटले शुं? अज्ञानी विकारनी रुचिथी विकारनो कर्ता थाय छे, ज्ञानी
स्वभावनी रुचिथी निर्मळ भावनो कर्ता थाय छे, पण जडनी अवस्थानो कर्ता कोइ आत्मा थइ शकतो नथी.
जडनी अवस्थानो कर्ता जड छे. लोको धर्म करवा मांगे छे, पण धर्मनो कर्ता आत्मा कोण छे? अने धर्मी आत्मानुं
कर्म शुं छे? तेना भान विना धर्म थतो नथी.
जड कर्मो परवस्तु छे, कोई परवस्तु आत्माने आवरण करती नथी. हुं रागी छुं, हुं द्वेषी छुं, हुं मनुष्य
छुं–एवी मान्यताथी जीव पोताना ज्ञाताद्रष्टा आत्मस्वभावने भूल्यो ते मिथ्याभ्रांति छे, ते अज्ञानीनुं कर्म छे
अने ते ज भावआवरण छे. ते मिथ्याभ्रांति केम छेदाय? तेनी आ वात छे. आचार्यभगवान कहे छे के एकत्व
चैतन्यस्वभावनो आश्रय ते मुक्तिनुं कारण छे, अने द्वैतना आश्रयमां अटकवुं ते बंधन छे.
बंध अने मोक्ष एवा बे भेद अखंड एकरूप वस्तुना स्वभावमां नथी; क्षणिक अवस्थामां बंध अने मोक्ष
छे. अवस्थामां एक समय पूरतो विकार ते बंधन छे, अने निर्विकारी दशा ते मोक्ष छे. बंध अने मोक्षनी
अवस्था जेटलुं त्रिकाळी द्रव्य नथी. तेथी बंध अने मोक्ष एवा द्वैतनी द्रष्टिथी, सम्यग्दर्शनना विषयभूत अखंड
आत्मा प्रतीतमां आवतो नथी. मोक्षदशानो उत्पाद अने बंधदशानो व्यय–एम द्वैतनो आश्रय करतां रागनी
उत्पत्ति थाय छे. अने धु्रवरूप अनादिअनंत एकरूप स्वभावनो आश्रय करतां निर्मळदशा प्रगटे छे, ते मुक्तिनुं
कारण छे.
त्रिकाळी स्वभावमां बंध–मोक्षनुं द्वैत नथी–एम जणावीने अभेद स्वभावनो आश्रय कराववो छे. परंतु
तेनो अर्थ एवो नथी के आत्मानी अवस्थामां पण बंधन नथी. आत्मानी अवस्थामां बंधन छे अने ते पोताना
ज अपराधथी छे, ते बंधनने जो नहि माने तो तेने टाळशे कोण? जेम मोढा उपर डाघ छे, तेने बदले अरीसामां
डाघ होवानुं मानीने अरीसो घसवा मांडे तो डाघ टळे नहि. डाघ पोताना मोढा उपर छे एम जाणे, अने डाघ
वगरनुं पोतानुं आखुं रूप छे तेने जाणे तो डाघने घसीने टाळी शके. तेम आत्मानी अवस्थामां बंधन छे तेने न
माने अने परने कारणे बंधन माने तो तेने बंधन टाळवा माटे पर सामे ज जोया करवानुं रह्युं, स्वसन्मुख
थवानुं तो रह्युं नहि, एटले तेने बंधन टळे नहि. पोतानी अवस्थामां क्षणिक विकार छे अने आखुं स्वरूप
निर्मळ छे–एम जाणे तो निर्मळस्वरूपना जोरे विकारने टाळे. जे बुद्धि आत्माना आखा निर्मळ स्वरूपने अने
अवस्थाना विकारने–बंनेने न जाणे ते बुद्धि मिथ्या छे.
चैतन्यस्वभाव शुद्ध होवा छतां तेनी वर्तमान अवस्थामां पुण्य–पाप विकार छे. ते विकार कोई
परवस्तुना कारणे थतो नथी, तेम ज ते आत्मानो कायमी स्वभाव पण नथी. पुण्य–पापनी क्षणिक विकारी
लागणी विनानो जे कायमी ज्ञानस्वभाव छे तेनी ओळखाण करवी ते धर्म छे. बंध अने मोक्ष ए बंने दशाओ
क्षणिक छे, मोक्ष पण आत्मानुं त्रिकाळी स्वरूप नथी. बंध टाळुं ने मोक्ष करुं–एम क्षणिक बंध–मोक्ष अवस्थाना
द्वैतनो ज आश्रय कर्या करे पण त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय न करे, तो मिथ्यात्व अने राग–द्वेषनी उत्पत्ति थाय छे.
अने जो चैतन्यमां क्षणिक बंध–मोक्षनी अवस्थाओ थाय छे तेने माने ज नहि तो चैतन्यनी ज नास्ति मानवा
जेवुं छे; केम के चैतन्यद्रव्यनी अस्तिनी कबूलात तो वर्तमान क्षणिक पर्याय द्वारा थाय छे, ते पर्यायने ज न कबूले
तो त्रिकाळीद्रव्यने शेना वडे कबूलशे?–माटे जेम छे तेम वस्तुस्वरूप जाणवुं जोईए.
जुओ, पहेलां ज्ञाननी दशा ओछी होय ने पछी विशेष ज्ञान थाय छे. ओछा ज्ञाननी दशा टळीने वधु
ज्ञाननी दशा थई, ते ज्ञान कयांथी आव्युं? कोई निमित्तमांथी के रागमांथी ते ज्ञान आव्युं नथी, ओछा ज्ञाननी
दशा गई तेमांथी पण ते विशेषज्ञान आव्युं नथी, पण अनंत ज्ञानसामर्थ्यथी धु्रवरूप स्वभाव छे ते स्वभाव–
(शेष पृष्ठ २३२ उपर)