जुदो ने अधूरा ज्ञान जेटलो पण नहि–एवो पूर्ण ज्ञानस्वभावी आत्मा केवो छे? तेने जाणे तो सम्यग्ज्ञान
थाय–धर्म थाय, ने भवभ्रमण मटे. ए सिवाय धर्म थाय नहीं ने भवभ्रमण मटे नहीं. शरीर वगेरेनुं हुं करुं छुं
अथवा ईन्द्रियोथी मने ज्ञान थाय छे–एम जे माने तेणे परने आत्मा मान्यो छे, ते अज्ञानी छे. क्षणिक विकारने
आखो आत्मा मानवो ते पण भ्रम छे. अने एकला पर तरफ वळता ज्ञानने आत्मा मानवो ते पण अज्ञान छे.
प्रतीतिमां आवतो नथी, एटले ते पण मिथ्यात्व छे. शब्द–रूप वगेरे आत्मामां नथी ने पुण्य–पाप विकार छे ते
पण आत्मस्वभावमां नथी माटे ते कोई वडे आत्मानो धर्म थाय नहि आत्माना स्वभावमां जे न होय तेनाथी
आत्मानो धर्म थाय नहि.
अल्पज्ञता जेटलो आत्मा नथी. जो अल्पज्ञता जेटलो ज आत्मा होय तो अल्पज्ञता टाळीने सर्वज्ञता प्रगटी शके
नहि. जे वर्तमान अल्पज्ञ अंश छे तेनो पण त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिए आत्मामां अभाव छे. शरीरादि परनो
अने विकारनो तो आत्मामां अभाव छे, पण जेम ९९ ने १०० माने तो ते मूर्खता छे तेम ज्ञानना अल्प
विकासने ज आखो आत्मा माने तो तेने य आत्मानो खरो स्वभाव नहि समजाय.
जाणे तेटला अल्प ज्ञानने जे आखो आत्मा मानी ल्ये तेणे आत्मानो स्वभाव जाण्यो नथी.
ईन्द्रियोमांथी के रागमांथी पण ज्ञान आवतुं नथी, तेम ज पूर्वपर्यायमांथी पण ज्ञान आवतुं नथी, जे कायमी
ज्ञानस्वभाव छे तेमांथी ज ज्ञाननी दशा आवे छे. ते ज्ञाननी दशा जो ज्ञानस्वभाव तरफ वळीने आखा
चैतन्यस्वभावने प्रतीतमां ल्ये तो यथार्थ आत्मा प्रतीतमां आवे. एवा आत्मस्वभावने प्रतीतमां लईने
स्वभावमां एकत्वरूप जे आत्मा थयो तेणे आत्माने ‘अरस’ जाण्यो छे. रससन्मुख के पर्यायसन्मुख बुद्धि
राखीने ‘आत्मा अरस छे’ एम यथार्थ जाणी–मानी शकाय नहि. रस वगेरे तरफना ज्ञान जेटलो हुं–एम न
छे. अनंतकाळे नहि समजेल आ अपूर्व आत्मानी वात स्वभावसन्मुख थतां समजवी सुलभ छे. आवा
आत्मानी समजणथी ज अंतरमां शांति ने आनंद प्रगटे छे, अने भवभ्रमणनो अंत आवे छे.
पवित्र छे तेवो तुं पण छे–तेनी हा पाड, ना पाडीश नहि. प्रथम
जशे. ‘हुं विकाररहित छुं ने तुं पण विकार–उपाधि विनानो
स्थापीने–निर्णय करावीने, आत्मस्वभाव केवो छे ते
संभळावतां आचार्यदेव मोक्षनी मंडळी उपाडे छे.