पुण्य थई जवा जोईए. तथा जो बहारमां हिंसा–अहिंसा होय तो, ते एकेन्द्रिय जीव कोई जीवने मारतो नथी
तेथी तेने मोटो अहिंसक गणवो जोईए. परंतु एम नथी. ते एकेन्द्रिय जीवने तीव्र संकलेश परिणाम छे ते
ज पाप छे ने ते ज हिंसा छे. पोताना परिणाम स्वतंत्र थाय छे तेनुं पण जीव भान करतो नथी. तो एने
धर्म क्यांथी थाय?
चैतन्य शुं छे तेनुं भान करवुं ते छे, ने तेमां ज शांति छे. भगवान! तारामां शक्तिपणे बेहद आनंद ने
ज्ञान छे तेमांथी प्रगटे छे, तेने न मानतां बहारथी प्रगटे एम मान्युं ते आत्मानो अनादर छे. यथार्थ
स्वरूप शुं छे ते जेना जाणवामां आवे तेनी रुचिनी दिशा फरी जाय; तथा रुचिनी दिशा फरतां दशा फरी
जाय, तेनी श्रद्धा फरी जाय, तेनुं ज्ञान फरी जाय, तेनी प्ररूपणा फरी जाय, तेनुं वलण फरी जाय, अने
संसारदशा फरीने अल्पकाळमां मोक्षदशा थई जाय.
आत्मा जुदो छे, जड ईन्द्रियोथी आत्मा जुदो छे, राग–द्वेष ते पण आत्मा नथी अने क्षायोपशमिक अधूरुं
ज्ञान ते पण आत्मानुं परमार्थस्वरूप नथी. आत्मा एकलो चेतनमय छे. आत्मा कान वडे शब्दने सांभळतो
नथी पण ज्ञान वडे जाणे छे. परसन्मुख थईने परने जाणतो नथी पण स्वसन्मुख रहीने जाणतां ज्ञान परने
पण जाणी ले छे, एवो स्वभाव छे. जेम सोनामांथी कुंडळ वगेरे दशा थाय छे तेम त्रिकाळी चैतन्यमांथी
तेनी विशेष ज्ञानदशा थाय छे, ते ज्ञान वडे आत्मा शब्दने जाणे छे. आत्मा पोते अशब्द छे, ते काननुं
अवलंबन लीधा वगर ज शब्दने जाणे छे. अहीं ‘अशब्द’ कहेतां मात्र शब्दथी ज जुदापणानी वात नथी
पण शब्द, शब्द तरफना वलणथी थतो राग तेम ज शब्द वगेरे परसन्मुख थतुं ज्ञान–ए बधाने पण शब्दनी
साथे लईने, तेनाथी आत्माने भिन्न बताव्यो छे. उपयोगनुं वलण स्वतरफ काम न करे ने पर तरफ ज
वलण राखे तथा परथी काम लेवानुं माने, –ते भावने आत्मा मानवो ते ऊंधी समजण छे, ते अनादिनी
मोटी भूल छे, ते भूल राखीने जीव गमे तेटलुं करे तो पण तेने धर्म थाय नहि ने भवभ्रमण मटे नहि,
आत्मानी शांति प्रगटे नहीं. जेम राखना ढगला उपर लींपण थाय नहि तेम ऊंधी श्रद्धारूपी राखना ढगला
उपर धर्मनुं लींपण थाय नहि, एटले के आत्माना परमार्थस्वभावनी साची ओळखाण वगर धर्मनी क्रिया
होय नहि.
आत्मा जेवो छे तेवो तेने जाणीने श्रद्धामां स्वीकारे तो ते श्रद्धा साची थाय एटले के सम्यग्दर्शन थाय. आ
सिवाय पुण्यरागमां के देहनी क्रियामां एवी ताकात नथी के तेनाथी सम्यग्दर्शन थाय. पुण्यराग वडे आत्मा
जणातो नथी तेम ज ते पुण्यरागने आत्मा माने तो पण आत्मा जाणातो नथी. रागरहित अने ज्ञानथी
परिपूर्ण आत्मानो स्वभाव छे, तेने जेवो छे तेवो जाणे तो साचुं ज्ञान थाय. जेम १०० नी संख्याने १००
तरीके माने तो ते बराबर गणाय, पण शून्यने सो तरीके माने तो ते बराबर नथी, १ ने १०० तरीके माने
तो ते पण बराबर नथी अने ९९ ने १०० तरीके माने तो ते पण बराबर नथी. तेम परमार्थस्वरूप
भगवान आत्मा परथी भिन्न परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप छे, तेने तेवो ज जाणे तो साचुं ज्ञान कहेवाय. शरीर–
मन–वाणीथी आत्मा भिन्न छे, एटले तेनाथी आत्मा खाली छे, आत्मामां शरीर–मन–वाणीनी शून्यता छे,
तेथी तेनाथी आत्माने खाली मानवो जोईए, तेमज अवस्थामां क्षणिक रागादि भावो थाय छे ते
त्रिकाळीस्वभावमां नथी एटले स्वभावमां ते शून्य छे, माटे तेने आत्मा मानवो न जोईए. छतां ते
विकारने जो आत्मा माने तो ते शून्यने १०० मानवा जेवुं