Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : ८५
आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्तव्य – १
अनंत भवभ्रमणना मूळने छेदी नाखनारुं
श्री वीर सं. २४७६ श्री समय कलश ६–७ तथा
श्रावण वद १२ शनिवार गाथा १३ उपर प्रवचन

प्रथम धर्मनी शरूआत एटले के सम्यग्दर्शन केम थाय? तेनी आ वात छे. आत्मामां शरीरादि परवस्तुओ
तो नथी; ने अवस्थामां एक समयपूरतो विकार–संसार छे ते पण आत्माना स्वभावमां नथी. आखी
चैतन्यवस्तुने एक समयना विकारवाळी मानवी ते अधर्म छे. आत्मानो स्वभाव तो एक समयमां बधुं जाणे तेवा
सामर्थ्यवाळो छे. आत्मा अनंत गुणोथी परिपूर्ण छे तेमां वर्तमान ज्ञाननी अवस्थाने अंतरमां वाळीने कायमी
स्वभाव साथे एकरूप करवी ने पूर्ण चैतन्यद्रव्यने श्रद्धामां स्वीकारवुं, तेनुं नाम धर्मनी शरूआत छे.
आवा परिपूर्ण आत्माने जे माने तेणे केवी मान्यता छोडवी पडे? –बधी ऊंधी मान्यता छोडवी पडे.
निमित्तथी, परथी के विकारथी जेओ धर्म माने–मनावे एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी मान्यता तो पहेले घडाके ज
छोडी देवी जोईए. अने वर्तमान ज्ञाननी अधूरी दशाना आश्रये कल्याण थाय–ए मान्यता पण छोडी देवी
जोईए. आत्मामां निमित्त वगेरे परवस्तुनो अभाव छे, क्षणिक विकारनो निषेध छे ने अधूरी पर्याय जेटलो
पण आत्मा नथी, अनंत गुणोथी परिपूर्ण आत्मा छे, तेनी श्रद्धा करवी ते ज परमार्थ सम्यग्दर्शन छे. आठ
वर्षनी राजकुंवरीओने पण अंतरमां आवुं यथार्थ भान थाय छे. माटे, ‘अमे तो गामडामां जन्मेला, ओछी
बुद्धिवाळा अने अमारो घणो वखत तो वेपार धंधामां चाल्यो गयो, तो हवे अमने आवो आत्मा केम
समजाय? ’ –एम न मानी बेसवुं. बधा समजी शके तेवो आत्मा छे. दरेक आत्मामां पूरुं ज्ञानसामर्थ्य भर्युं छे.
पण अंतरमां नजर वाळवी जोईए. अंतरमां नजर करतां न्याल करी द्ये एवी वस्तु छे, नजर करतां न्याल थई
जवाय एवो भगवान आत्मा चैतन्यनो भंडार छे.
कोई एम माने के अल्प उघाडवाळी क्षयोपशमदशा ते क्षायकभावनुं कारण थाय, तो ते पण पर्याय–बुद्धि–
व्यवहारनी मुख्यतावाळा–व्यवहारमूढ छे. अखंड परिपूर्ण आत्माना आश्रय वगर क्षायक भाव प्रगटे नहीं. जे
जिज्ञासुने आवो पूरो आत्मा मानवो होय तेणे, निमित्तथी ने विकारथी धर्म मनावनारा कुदेव–कुगुरु वगेरेनी
लवथव छोडवी, तेनो आदर छोडवो, तेनी प्रशंसा छोडवी. तेमज पोतानी पर्यायमां साचा देव गुरुनी प्रशंसा
वगेरेनो जे शुभभाव थाय ते शुभरागनी प्रशंसा पण छोडवी, ते रागने धर्मनुं कारण न मानवुं; अने ज्ञानना
वर्तमान उघाडनी प्रशंसा के अहंकार पण छोडवो. जो वर्तमान अल्प उघाडने ज आखुं स्वरूप माने तो तेनी
प्रशंसा तेम ज अहंकार थया विना रहे नहि. पण जे जीव परिपूर्ण अखंड चैतन्यतत्त्वने माने ते जीव अल्प
उघाडने पोतानुं पूरुं स्वरूप न माने एटले तेने तेनो अहंकार के प्रशंसा न थाय; तेथी ते वर्तमान पर्यायने अभेद
परिपूर्ण स्वभावनी सन्मुख करीने तेनी प्रतीति करे; ते ज निश्चयसम्यग्दर्शन छे, ए ज प्रथम अपूर्व धर्म छे.
वर्तमान ज्ञानना विकास जेटलो ज पोताने मानीने न अटकतां, वर्तमान ज्ञानने अंतरस्वभावमां
वाळतां अपूर्णता के पर्यायनी मुख्यता देखाती नथी एटले आत्मा परिपूर्ण ज प्रतीतमां आवे छे. आ रीते
शुद्धनयवडे परिपूर्ण आत्माने प्रतीतमां लेवो ते खरेखर सम्यग्दर्शन छे.
अहीं शिष्य प्रश्न करे छे के, ‘आत्मा ज्ञानमात्र छे, आत्मा ज्ञाताद्रष्टा छे’ –एम मानी लीधुं ते सम्यग्दर्शन
छे के नहीं? तो कहे छे के–एम ओघीक मान्यता न चाले. सर्वज्ञदेवे जेवो आत्मा कह्यो छे तेवो ओळखीने,
अंतरमां रुचि वळीने द्रव्यस्वभावमां पर्यायनी अभेदता थाय त्यारे आत्माने ज्ञाताद्रष्टा मान्यो कहेवाय;–ए
सिवाय ‘आत्माने ज्ञाताद्रष्टा मानी लीधो’ एम कहे तेथी खरेखर सम्यग्दर्शन थई जतुं नथी. अंतरमां पर्याय
वळीने तेनुं वेदन–अनुभवन थवुं जोईए.