श्री परमात्म – प्रकाश – प्रवचनो
लेखांक १९ मो] • [अंक ८३ थी चालु
वीर सं. २४७३ भादरवा वद ३
(१८९) भेदज्ञान करवानी प्रेरणा : – हवे श्रीगुरु कहे छे के हे शिष्य! तुं जीव अने अजीवने लक्षणभेद वडे
जुदा ओळख, तेमने एक न जाण–
जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण भेएं भेउ।
जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ।। ३०।।
भावार्थ:– हे प्रभाकरभट्ट! तुं जीव अने अजीवने एक न कर, –बंनेने एक न मान. केम के तेमनामां
लक्षणभेदे भेद छे. जे परना संबंधथी उत्पन्न थयेला एवा रागादि विभावो छे तेने जीवस्वभावथी जुदा
समज, अने आत्माने आत्माना स्वभावथी अभेद जाण एम हुं (योगीन्द्रदेव) कहुं छुं.
(१९०) वक्ता अने श्रोतानी संिध : – अहीं आचार्यदेव कहे छे के हुं आवो जीवस्वभाव वर्णवुं छुं अने तुं
तेवो जीवस्वभाव जाण. हुं कहुं छुं अने तुं समज–एवी वक्ता–श्रोताना भावनी संधिपूर्वक ज कथन छे.
(१९१) अात्मा कई रीते समजाय छे? : – जीवनुं लक्षण शुद्ध चैतन्य छे; शरीर–मन–वाणी के शास्त्र भणवा
तरफनो जे राग तेनाथी आत्मा जणाय तेवो नथी, सम्यग्ज्ञान वडे ज जणाय तेवो छे, –जाणनार
चैतन्यस्वभाव द्वारा ज आत्मा जणाय तेवो छे. शरीरादि तो अजीव छे, ने आत्मानी क्षणिक दशामां जे रागादि
भावो थाय ते पण, जीवनो स्वभाव नहि होवाथी अजीव छे. शुद्ध चैतन्यभावनो पिंड ते ज जीव छे; ते कोई
निमित्तथी, ईन्द्रियोथी, के व्यवहारथी जणातो नथी; साचा देव–गुरु–शास्त्र वगेरे परनी श्रद्धाथी, परना लक्षे
थता ज्ञानथी के व्रतादिमां थती रागनी मंदताथी आत्मा जणातो नथी. केम के ए बधुं तो जीव पूर्वे करी चूक्यो
छे, ते बधा पराश्रय भाव छे. श्री आचार्यदेव कहे छे के ‘व्यवहार द्वारा परमार्थ समजाय छे अथवा तो व्यवहार
ते परमार्थनुं साधन छे’ एम अमे ज्यां कह्युं होय त्यां पण ते व्यवहारनुं अवलंबन छोडावीने परमार्थनुं ज
अवलंबन कराववानो हेतु छे, व्यवहारनुं अवलंबन कराववानुं प्रयोजन नथी.
व्यवहार द्वारा परमार्थ समजाय छे माटे तुं व्यवहारमां न अटकतां परमार्थने ज समजी लेजे, एम परमार्थ
तरफ जोर देवा माटे ते कथन उपचारथी कर्युं हतुं. जे जीव व्यवहारनो आश्रय छोडीने परमार्थ समजी जाय ते
जीवने माटे उपचारथी कहेवाय के ‘व्यवहार द्वारा परमार्थ समज्यो. ’ पण जे जीव व्यवहारमां ज अटकी रहे छे ते
जीवने परमार्थ कदी समजातो नथी, अने परमार्थ समज्या वगर तेनो व्यवहार ते यथार्थ व्यवहार होतो नथी.
शुद्ध चैतन्यमय आत्मा छे, तेमां रागादि नथी तेमज रूप–रस–गंध–शब्द वगेरे नथी. श्री समयसारजी
गाथा ४९ मां कहे छे के जीव चैतन्यस्वरूप छे, ते शब्द–रस–रूप–गंध रहित छे, अने जडनो आकार तेनामां
नथी. शरीरना आकारथी आत्मानो चैतन्यआकार जुदो छे. आवो चैतन्यस्वरूप आत्मा ईन्द्रियो वडे जणातो
नथी, राग वडे जणातो नथी. ईन्द्रियो के रागादि बंने जीवनुं स्वरूप नथी, माटे तेओ जीव नथी, ––अजीव छे.
चिद्रूप निजवस्तु भगवान आत्मा छे तेने जाणो अने एथी विरुद्ध भावोने छोडो.
(१९२) स्वभाव समजवा माटे घणी बुद्धि (ज्ञाना उघाड) नी जरूर नथी पण यथार्थ रुचिनी जरूर छे.
प्रश्न:– आ वात तो घणी सूक्ष्म अने ऊंची छे. एटले घणी बुद्धि होय तो ज आ समजाय ने? ओछी
बुद्धिवाळाने क्यांथी समजाय?
उत्तर:– यथार्थ तत्त्व समजवा जेटली बुद्धि तो बधामां छे, पण तत्त्वनी यथार्थ रुचि होवी जोईए.
जुओ, एक मोटो बॅरिस्टर वकील होय अने बीजो अभण भरवाड होय, बुद्धिनी हीनाधिकता होवा छतां बंनेने
पोतानी स्त्री उपरना प्रेममां फेर पडतो नथी. वकील पोतानी स्त्री उपर जेवो प्रेम करे तेवो ज प्रेम भरवाड पण
पोतानी स्त्री उपर करी शके छे. वकीलने घणी बुद्धि होय माटे ते वधारे प्रेम करी शके अने भरवाडने ओछी बुद्धि
छे माटे ते वधारे प्रेम न करी शके–एम नथी. केमके बुद्धिनो वधारो के घटाडो तेनी साथे रुचिनो संबंध नथी.
ओछी बुद्धिवाळो जीव हो के वधारे बुद्धिवाळो जीव हो, बंने पोताने रुचेला पदार्थमां ‘आ ठीक छे, आमां मने
सुख छे’ एवो (अनुसंधान माटे जुओ, टाईटल पृष्ट ३जुं)