Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४७७ : ५ :
जिज्ञासु शिष्यने श्रीगुरु भवभ्रमणना अंतनो
उपय समजाव छ.
[वीर सं. २४७६ ना जेठ वद ४–प ना रोज श्री समयसार गाथा ४९ उपर कुंडलामां पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी]
() ्र िज्ञ िष् : चैतन्यना पंथ अनंतकाळथी अजाण्या छे,
जगतना जीवोए ते जाण्या नथी. चैतन्यने जाणवा माटे पात्र शिष्य प्रश्न पूछे छे के हे भगवान्! आ आत्मा शुं
चीज छे? आत्मानुं खरुं स्वरूप केवुं छे? देहादिथी ने रागथी पार आत्मा शुं चीज छे के जेने जाण्ये अमने शांति
थाय? हे नाथ! आत्मानुं असल स्वरूप समज्या वगर हुं अनादिकाळथी भवभ्रमणमां रखडयो छुं, हवे
आत्मानुं असल स्वरूप बतावो के जे समजतां आत्मानो अनुभव थाय, अंतरनी शांति अने आनंद मळे, ने
आ भवभ्रमणनो अंत आवे.–आम शिष्ये जिज्ञासाथी प्रश्न पूछयो, तेने श्री आचार्यदेव उत्तर आपे छे.
() ्र ? र् जा . : चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा
पुद्गलना द्रव्य–गुणथी भिन्न छे तथा पुद्गलना पर्यायोथी पण भिन्न छे; एटले ते जड ईन्द्रियो वडे जाणतो
नथी पण ज्ञानस्वभावथी ज जाणे छे. ए ज्ञानलक्षण वडे आत्माने ओळखवो. सत्समागमे आत्मानी
ओळखाण करतां सिद्ध भगवान जेवो अंशे अनुभव थाय तेने सम्यग्दर्शन कहे छे, ते धर्मनी पहेली भूमिका छे;
तथा ते ज भवभ्रमणना अंतनुं मूळ छे. ते सम्यग्दर्शन केम प्रगटे तेनी आ वात चाले छे.
सम्यग्दर्शन एटले सत्यनो स्वीकार; आत्माने तेना पूर्ण स्वरूपे स्वीकारे तो सम्यग्दर्शन थाय, पण
अपूर्ण के परना आश्रयवाळो ज माने तो कदी अज्ञान टळे नहि. आत्मामां त्रिकाळ चेतनागुण छे, अजीव
पदार्थोमां कदी चेतना नथी. जीव अने अजीव त्रणेकाळे जुदा छे, कदी एक थता नथी. आत्मानुं ज्ञान ईन्द्रियोना
आधारे थतुं नथी पण अखंड ज्ञानस्वभावना ज आधारे थाय छे, पण हुं–आत्मा जड जीभवडे रसने चाखुं छुं
एम अज्ञानीने भ्रम पडी गयो छे. रस अजीव छे ने जीभ पण अजीव छे, ते रसनी अवस्थाने आत्मा जीभवडे
जाणता नथी केम के आत्मा जड ईन्द्रियोनो घणी नथी ने आत्मानुं ज्ञान ईन्द्रियोने आधीन नथी. अहीं
आत्मानो ज्ञानस्वभाव बताववो छे. ज्ञानस्वभावी आत्मा पोताना ज्ञाननो आधार छोडीने ईन्द्रियो तरफना
वलणथी परने ज जाणे–एवो तेनो स्वभाव नथी. पण स्वभावसन्मुख रहीने, परसन्मुख थया वगर, ज्ञानमां
पर जणाई जाय एवो तेनो स्वभाव छे. आवा ज्ञानस्वभावनो विश्वास करे तो अंतरमां शांति प्रगटे ने
भवभ्रमणनो अंत आवे.
() िजा प्र : सिद्ध भगवान जेवो पूर्ण आनंद आत्मामां शक्तिरूपे
भर्यो छे, तेनो प्रगट अनुभव कई रीते थाय तेनी आ वात छे. सम्यग्दर्शन एटले धर्मनी पहेली कळा, ते
सम्यग्दर्शन प्रगटतां अमृतस्वरूप आत्मानुं भान थई जाय छे ने हुं जड ईन्द्रियोथी काम लउं–एवी द्रष्टि ते
धर्मीने मटी जाय छे. हुं जीभनो स्वामी छुं, जीभवडे मने रसनुं ज्ञान थाय छे–एम जे माने तेने भगवान
मिथ्याद्रष्टि–मूढ कहे छे. जड ईन्द्रियोथी आत्मा जाणे–एम जेणे मान्युं तेणे जड साथे आत्माने एकमेक मान्यो,
पण जडथी जुदा ज्ञानस्वभावी आत्माने मान्यो नहि, तेनुं नाम मिथ्यात्व छे. ईन्द्रियो तो जड, रूपी छे. अरूपी
चैतन्य आत्मा तेनाथी भिन्न छे.
जेणे आत्मानुं अपूर्व सम्यग्दर्शन अने निजानंदनो अनुभव प्रगट करवो होय तेणे आम समजवुं के–हुं
चैतन्यमूर्ति आत्मा जीभना अवलंबने रसने जाणतो नथी, आंखना अवलंबने रूपने जाणतो नथी, नाकना
अवलंबने गंधने जाणतो नथी, कानना अवलंबने शब्दने जाणतो नथी तथा स्पर्शेन्द्रियना अवलंबने स्पर्शने
जाणतो नथी, ए प्रमाणे कोई ईन्द्रियोना अवलंबने रस वगेरेने जाणतो नथी, तेमज रागना अवलंबने पण हुं
जाणतो नथी, मारो ज्ञानस्वभाव पांच ईन्द्रियो तेमज रागथी भिन्न छे, ते ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने
जाणतां ईन्द्रियोनां अवलंबन वगर रस वगेरे ज्ञानमां जणाई जाय छे.