Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ६: आत्मधर्म: ८५
ज्ञानमां स्वभावसन्मुखता वधतां परसन्मुखता टळती जाय छे, जेम जेम ज्ञान वधे छे तेम तेम परसन्मुखता
टळे छे, माटे आत्मा परना अवलंबने जाणतो नथी. आम जाणीने आत्माना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थतां
निजानंदनो अनुभव प्रगटे छे, अने भवभ्रमणनो अंत आवे छे. अरूपी आत्मा रूपी ईन्द्रियोवडे जाणे–एम
माननार आत्माना स्वतंत्र ज्ञानस्वभावनुं खून करनार मिथ्याद्रष्टि छे, ते अनंत भवभ्रमणमां रखडे छे.
जड ईन्द्रियोथी आत्मा जुदो छे. शब्दोवडे आत्मा जाणतो नथी ने आत्मा शब्दोने करतो नथी. जीभनो
लवो वाळवानी क्रिया आत्मानी नथी पण जडनी छे; ते क्रिया थवानी होय तो तेना कारणे थाय छे. छतां
अज्ञानी माने छे के हुं ते अवस्थाने करुं छुं, मारुं ज्ञान छे तेथी ते अवस्था थाय छे. –आ ऊंधी मान्यताथी
ज्ञानस्वभावी आत्मा तेना लक्षमां आवतो नथी.
() स्रू : स्वभावसन्मुख चैतन्यनी अवस्था स्वने जाणतां परने जाणी ले छे, पण ते
परने लईने तेनुं ज्ञान थतुं नथी. रसना ज्ञान समये सामे रस निमित्तरूपे होय तथा अधूरा ज्ञानमां ईन्द्रियो
निमित्त तरीके होय, परंतु जो स्वभावनी सन्मुखता छोडीने एकली ईन्द्रियोना अवलंबने ज जाणे तेमज रसना
अवलंबने हुं जाणुं छुं–एम माने तो तेनुं ज्ञान मिथ्या छे, अने ते ऊंधी मान्यतामां त्रिकाळी सत्यना अनादरनुं
अनंतगुणुं पाप छे.
पाप ते आत्मानी अरूपी अवस्थामां छे. शरीर द्वारा पर जीवने मारवानी क्रिया थती होय तेने ज
अज्ञानी पाप तरीके जुए छे, परंतु पर जीव मर्यो तेमां के देहनी क्रियामां पाप रहेतुं नथी, पाप तो आत्मानी
विकारी दशा छे, ते आत्माथी बहार न होय. बाह्यमां जीवने मारवानी क्रिया न देखाती होय पण अंदरमां ऊंधी
श्रद्धाना सेवननुं महान पाप सेवातुं होय ते पापने अज्ञानी जाणतो नथी. सर्वज्ञ भगवान कहे छे के तुं तारा
ज्ञानथी ज जाणे छे, परथी जाणतो नथी. छतां सर्वज्ञ भगवाननो अनादर करीने तेमज पोताना सत्य
ज्ञानस्वभावनो अनादर करीने ‘परथी हुं जाणवानुं काम करुं छुं’ एम जीव माने छे ते ज महान पाप छे.
नीचली दशामां राग थाय ते जुदी वात छे ने ते रागने धर्म मानवो ते जुदी चीज छे. धर्मी गृहस्थने
राग तो होय पण ते रागथी धर्म मानता नथी, रागरहित ज्ञानस्वभावनुं तेने भान छे ते ज धर्म छे. राग थाय
ते अल्प दोष छे ने रागने धर्म मानवो ते महान दोष छे. आत्माने केवा स्वरूपे समजे तो ते महान दोष टळे?
तेनी वात चाले छे.
() िन्न न्स् : जीवे पोताना असली स्वरूपने कदी जाण्युं नथी, ने संयोगी भावोने ज
पोतानुं स्वरूप मानी लीधुं छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवे केवळज्ञानथी जोयेली जड–चेतन पदार्थोनी पृथक–पृथक ऋद्धि
शुं छे? –जड–चेतननो भिन्न भिन्न स्वभाव शुं छे ते जाणवानी कदी दरकार करतो नथी. संसारनी रुचिवाळो
जीव बाप–दादानी मूडी जोवा माटे चोपडा तपासे छे, पण अहीं आत्मानी रुचि प्रगट करीने सर्वज्ञ–संतोए जे
रीते जड चेतननी जुदी जुदी शक्ति वर्णवी छे तेने जाणवानी दरकार करतो नथी. भगवान सर्वज्ञदेव अने
ज्ञानीओ कहे छे के भाई! तारो आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, राग पण तारा स्वभावमां नथी ने जड ईन्द्रियोथी
तारा ज्ञाननी उत्पत्ति थती नथी. जड ईन्द्रियोथी आत्मा भिन्न छे, माटे ईन्द्रियो वडे आत्मा रसने चाखतो
नथी, तेथी आत्मा अरस छे. आवा स्वरूपे आत्माने जे मानतो नथी अने ईन्द्रियो द्वारा ज्ञान थवानुं माने छे
तेने चैतन्य तरफ वळवानी श्रद्धा थती नथी, एटले तेने आत्मानी शांति प्रगटती नथी. पहेलांं तो,
चैतन्यस्वभाव जेवो छे तेवो श्रद्धामां लेवानी वात छे.
जेम सोनुं कायम रहीने तेनामां तेनी अवस्था थाय छे, हथोडी वगेरेमांथी सोनानी अवस्था आवती
नथी पण सोनामांथी ज आवे छे; तेम जीव अने अजीव दरेक पदार्थ कायम रहीने तेनामां तेनी अवस्थाओ
थया करे छे. जीव अने अजीव बंने द्रव्यो भिन्न छे ने तेनी अवस्थाओ पण भिन्न भिन्न थाय छे. जीवमां
जाणवानो स्वभाव त्रिकाळ छे, तेमांथी जाणवानी अवस्था थाय छे. जाणवानी अवस्था ईन्द्रिय वगेरे पर
पदार्थमांथी के रागमांथी आवती नथी, पण ज्ञानस्वभावमांथी ज आवे छे. आत्मा ईन्द्रियोवडे के रागवडे
जाणतो नथी पण पोतानी ज्ञानअवस्थाथी जाणे छे.