छे ने तेनाथी संवर थाय छे. –तो ते मान्यता जूठी छे. कर्मना उदयमां जोडातां शुभवृत्तिनुं उत्थान थाय ते
पुण्य छे. ते पुण्य क्षयोपशमभाव नथी पण उदयभाव छे. पुण्य ते आस्रव छे, वृत्तिनुं उत्थान छे, तेने जो
उदयभाव न कहेवो तो कोने कहेवो? शुं एकला पापने ज उदयभाव कहेवो? पुण्य तेम ज पाप ए बंने
उदयभाव छे, ते धर्मनुं कारण नथी. संवर तो पुण्य–पाप रहित निर्मळ भाव छे, ते धर्म छे. चैतन्यस्वरूप
आत्मामां एकाग्रताथी ज संवर थाय छे. आवो संवर भाव आत्मामां प्रगट्या पहेलांं तेनी प्रतीत करवी ते
व्यवहारश्रद्धा छे. जेने आवो संवरभाव प्रगट्यो होय ते ज साचा गुरु होय, जेने एवो संवरभाव प्रगट्यो
न होय ते कुगुरु छे. एटले संवरतत्त्वनी ओळखाणमां साचा गुरुनी प्रतीत पण भेगी आवी जाय छे.
जेनामां संवरतत्त्व प्रगट्युं न होय एवा अज्ञानीओने जे गुरु तरीके आदरे ते जीवने संवरतत्त्वनी श्रद्धा
नथी.
जीव धर्मना बहारवटीआने पोषे छे; तेने धर्म होई शके नहीं. जेओ परथी के पुण्यथी संवर न मनावे पण
आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रथी संवर मनावे, अने एवो संवर जेना आत्मामां प्रगट्यो होय ते ज गुरु छे,
एवा गुरुने ज गुरु तरीके माने त्यारे तो गुरुनी श्रद्धा थई कहेवाय छे. आ तो बधुं व्यवहारश्रद्धामां आवी जाय
छे.
करवी ते पहेलो संवर छे, ने पछी चारित्रदशा प्रगटतां विशेष संवर थाय छे.
सौथी मोटुं पाप छे. शुद्ध चैतन्यनी श्रद्धा करीने तेमां स्थिर थवुं ते संवर छे. जेमणे एवो संवर प्रगट कर्यो होय
अने एवुं ज संवरनुं स्वरूप बतावता होय ते ज साचा गुरु छे. संवरभाव प्रगट्या पहेलांं संवरनुं ज्ञान करवुं
जोईए. आम समजे त्यारे नवतत्त्वनी श्रद्धा थई कहेवाय. आ सिवाय जे पुण्यथी धर्म मनावनारा कुदेव–कुगुरु–
कुशास्त्रने माने तेने नवतत्त्वनी श्रद्धा पण नथी; एटले तेने तो व्यवहारधर्म पण प्रगट्यो नथी, तेने आत्मानो
परमार्थधर्म होतो नथी.
विचारे तो अंतरमां आ वात बेसे तेवी छे. आ वात समज्या वगर आत्मानुं कल्याण के धर्म थतो नथी.
नवतत्त्वना विचार करतां भेद पडे छे ने राग थाय छे, तेथी ते व्यवहारश्रद्धा छे. नवतत्त्वोना विचार एक
समयमां आवतां नथी केम के ते तो अनेक छे, तेमां एक तत्त्वना विकल्प वखते बीजा तत्त्वोनो विकल्प
होतो नथी; एटले नवतत्त्वना लक्षे भेद अने क्रम पडे छे पण निर्विकल्पदशा थती नथी. भूतार्थ आत्मामां
एकपणुं छे, ते एक समयमां अखंडपणे प्रतीतमां आवे छे ने तेना लक्षे ज निर्विकल्पदशा थाय छे. पण
एवी निर्विकल्पदशा माटे आत्मा तरफ वळतां पहेलांं नवतत्त्वना विकल्प आव्या वगर रहेता नथी.
नवतत्त्वोना क्रम–विचारमां पण जे आव्यो नथी तेने ते क्रमनो विचार छोडीने अक्रमरूप आत्मस्वभावनी
एकतानी श्रद्धा थाय नहीं.