Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर: २४७७ : २९ :
छट्ठंुं संवरतत्त्व छे: संवर ते आत्मानी निर्मळ पर्याय छे. शरीर संकोचीने बेसी जवुं ते कांई संवर
नथी. चैतन्यमां एकाग्रताथी सम्यग्दर्शन थाय ते पहेलों संवर छे. कोई एम माने के पुण्य ते क्षयोपशमभाव
छे ने तेनाथी संवर थाय छे. –तो ते मान्यता जूठी छे. कर्मना उदयमां जोडातां शुभवृत्तिनुं उत्थान थाय ते
पुण्य छे. ते पुण्य क्षयोपशमभाव नथी पण उदयभाव छे. पुण्य ते आस्रव छे, वृत्तिनुं उत्थान छे, तेने जो
उदयभाव न कहेवो तो कोने कहेवो? शुं एकला पापने ज उदयभाव कहेवो? पुण्य तेम ज पाप ए बंने
उदयभाव छे, ते धर्मनुं कारण नथी. संवर तो पुण्य–पाप रहित निर्मळ भाव छे, ते धर्म छे. चैतन्यस्वरूप
आत्मामां एकाग्रताथी ज संवर थाय छे. आवो संवर भाव आत्मामां प्रगट्या पहेलांं तेनी प्रतीत करवी ते
व्यवहारश्रद्धा छे. जेने आवो संवरभाव प्रगट्यो होय ते ज साचा गुरु होय, जेने एवो संवरभाव प्रगट्यो
न होय ते कुगुरु छे. एटले संवरतत्त्वनी ओळखाणमां साचा गुरुनी प्रतीत पण भेगी आवी जाय छे.
जेनामां संवरतत्त्व प्रगट्युं न होय एवा अज्ञानीओने जे गुरु तरीके आदरे ते जीवने संवरतत्त्वनी श्रद्धा
नथी.
अहो! एक समयनो संवर ते मुक्ति आपे. एवा संवरने बदले जेओ जडनी क्रियामां ने पुण्यमां संवर
मनावे ते बधा कुदेव–कुगुरु छे. कुगुरुओ ते साचा धर्मने लूंटनारा बहारवटीआ छे, तेने गुरु तरीके जे माने ते
जीव धर्मना बहारवटीआने पोषे छे; तेने धर्म होई शके नहीं. जेओ परथी के पुण्यथी संवर न मनावे पण
आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रथी संवर मनावे, अने एवो संवर जेना आत्मामां प्रगट्यो होय ते ज गुरु छे,
एवा गुरुने ज गुरु तरीके माने त्यारे तो गुरुनी श्रद्धा थई कहेवाय छे. आ तो बधुं व्यवहारश्रद्धामां आवी जाय
छे.
अहो! अंतरमां विचार करीने आ जातनो ख्याल तो ज्ञानमां करो. ए आत्मानी अंतरनी क्रिया छे ए
सिवाय बहारनी क्रिया आत्मा करी शकतो नथी. पहेलांं अंतरमां परमार्थस्वभावनी सन्मुख थईने तेनी श्रद्धा
करवी ते पहेलो संवर छे, ने पछी चारित्रदशा प्रगटतां विशेष संवर थाय छे.
आत्मा परनुं करी शके, पुण्यथी संवर–धर्म थाय–एम जे माने तेने तो व्यवहारश्रद्धा पण साची नथी;
एवा जीवोने जे गुरु तरीके मानीने आदरे ते जीव ते कुगुरु करतां पण वधारे पापी छे. मिथ्यात्वनुं सेवन ए
सौथी मोटुं पाप छे. शुद्ध चैतन्यनी श्रद्धा करीने तेमां स्थिर थवुं ते संवर छे. जेमणे एवो संवर प्रगट कर्यो होय
अने एवुं ज संवरनुं स्वरूप बतावता होय ते ज साचा गुरु छे. संवरभाव प्रगट्या पहेलांं संवरनुं ज्ञान करवुं
जोईए. आम समजे त्यारे नवतत्त्वनी श्रद्धा थई कहेवाय. आ सिवाय जे पुण्यथी धर्म मनावनारा कुदेव–कुगुरु–
कुशास्त्रने माने तेने नवतत्त्वनी श्रद्धा पण नथी; एटले तेने तो व्यवहारधर्म पण प्रगट्यो नथी, तेने आत्मानो
परमार्थधर्म होतो नथी.
अहो, आ सूर्य जेवी चोकखी वात छे. अंतरमां बराबर ख्याल करे तो आत्मामां उजास थई जाय.
पूर्वना ऊंधा प्रकारो साथे आ वातने मेळ खाय तेम नथी. पूर्वनी पक्कड छोडीने, मध्यस्थ थईने पात्रताथी
विचारे तो अंतरमां आ वात बेसे तेवी छे. आ वात समज्या वगर आत्मानुं कल्याण के धर्म थतो नथी.
सर्वज्ञ भगवाने कहेलां नवतत्त्वोने रागमिश्रित विचारथी मानवानी पण जेनामां त्रेवड नथी अने
कुगुरुओनां कहेलां तत्त्वोने माने छे तेने अभेद आत्मा तरफ वळीने परमार्थश्रद्धा थई शकती नथी.
नवतत्त्वना विचार करतां भेद पडे छे ने राग थाय छे, तेथी ते व्यवहारश्रद्धा छे. नवतत्त्वोना विचार एक
समयमां आवतां नथी केम के ते तो अनेक छे, तेमां एक तत्त्वना विकल्प वखते बीजा तत्त्वोनो विकल्प
होतो नथी; एटले नवतत्त्वना लक्षे भेद अने क्रम पडे छे पण निर्विकल्पदशा थती नथी. भूतार्थ आत्मामां
एकपणुं छे, ते एक समयमां अखंडपणे प्रतीतमां आवे छे ने तेना लक्षे ज निर्विकल्पदशा थाय छे. पण
एवी निर्विकल्पदशा माटे आत्मा तरफ वळतां पहेलांं नवतत्त्वना विकल्प आव्या वगर रहेता नथी.
नवतत्त्वोना क्रम–विचारमां पण जे आव्यो नथी तेने ते क्रमनो विचार छोडीने अक्रमरूप आत्मस्वभावनी
एकतानी श्रद्धा थाय नहीं.
प्रथम नवतत्त्वनी श्रद्धा करीने, ते नवना भेदनो विचार छोडी अभेद चैतन्यद्रव्यनी प्रतीत करतां
सम्यग्दर्शनरूपी