Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : ८६
खबर नथी. अने जेनी एक तत्त्वमां भूल होय तेनी नवे तत्त्वोमां भूल होय. सिद्ध परमात्मा जेवा पोताना
आत्मस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां रागरहित ठरवुं ते संवरधर्म छे.–एवा संवर वगेरे नवतत्त्वनी
विकल्पसहित श्रद्धा ते व्यवहारश्रद्धा छे, ने नवतत्त्वना विकल्परहित थईने एक अभेद आत्मानी प्रतीत अने
अनुभव करवो ते खरेखर सम्यग्दर्शन छे, ते ज प्रथम धर्म छे.
आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्तव्य–४
नवतत्त्वनुं ज्ञान ते
सम्यग्दर्शननो व्यवहार छे
[वीर सं. २४७६, श्रावण वद ०)) मंगळवार]
जेणे आत्मानी शांति अने हितरूप कर्तव्य करवुं होय तेणे शुं करवुं? ते वात चाले छे. जीव, अजीव वगेरे
नवतत्त्वोने जेम छे तेम प्रथम मानवा जोईए; नवतत्त्वने मान्या वगर नवना विकल्पनो अभाव थईने
एकरूप वस्तुस्वभावनी द्रष्टि थाय नहीं, ने वस्तुस्वभावनी द्रष्टि थया वगर शांति के हित थाय नहीं.
नवतत्त्वो छे ते पर्यायद्रष्टिथी छे, नवतत्त्वोमां अनेकता छे, ते अनेकताना आश्रये एक स्वभावनी
प्रतीत थती नथी; तेम ज पर्यायद्रष्टिमां अनेकता छे तेने जाण्या वगर पण एकरूप स्वभावनी वस्तुद्रष्टि थाय
नहीं. नवतत्त्वना विकल्पथी एक अभेद आत्मस्वभावनां श्रद्धा–ज्ञान थतां नथी, पण एक अभेद आत्मस्वभाव
तरफ वळीने तेनां श्रद्धा ज्ञान करतां तेमां नवतत्त्वोनुं रागरहित ज्ञान आवी जाय छे. पहेलांं रागनी मंदता
थईने, ज्ञानना क्षयोपशममां नव तत्त्वो जेम छे तेम जाणवा जोईए, तेने जाण्या विना भेदनो निषेध करीने
अभेदनो अनुभव प्रगटे नहीं.
क्षणिक अवस्थारूप छे. पुण्य अने पाप ते क्षणिक अवस्थामां थाय छे, ते विकारी अंश छे. पुण्य–पाप–आस्रव
तेम ज बंध ए चारे तत्त्वो अवस्थानो स्वतंत्र विकार छे; ते त्रिकाळी जीवना आश्रये नथी तेम ज अजीवने
लीधे पण नथी. जो त्रिकाळी जीवना आश्रये विकार थाय तो तो जीवतत्त्व अने पुण्यादि तत्त्वो जुदां रहे नहि, ने
जो अजीवने लीधे विकार थाय तो अजीवतत्त्व अने पुण्यादि तत्त्वो जुदां रहे नहि–ए रीते नवतत्त्वो
भिन्नभिन्न नक्की थाय नहीं. माटे नवतत्त्वोने जेम छे तेम भिन्नभिन्न ओळखवा जोईए.
भगवान आत्मा अनंत चैतन्यशक्तिनो पिंड, धु्रव छे, शरीरादि अजीवथी जुदो छे–एम रागसहित
विचारथी नक्की करे तेने जीवतत्त्वनो व्यवहारनिर्णय कहेवाय छे. आ जगतमां एक जीवतत्त्व ज नथी परंतु जीव
सिवाय बीजां अजीवतत्त्वो पण छे. जीवमां ते अजीवनो अभाव छे, पण अजीवपणे तो ते अजीवतत्त्वो भूतार्थ
छे. तथा चैतन्यतत्त्वनुं लक्ष चूकीने अजीवना लक्षे क्षणिक अवस्थामां पुण्य–पाप–आस्रव ने बंधतत्त्वनुं होवापणुं
स्वतंत्र छे. जो अजीव–कर्मने लीधे विकार थाय छे एम माने तो तेणे अजीवने अने आस्रवादि तत्त्वोने एक
मान्यां, एटले नवतत्त्वो स्वतंत्र न रह्या. माटे कर्मने लीधे विकार थाय एम जे माने छे तेने नवतत्त्वनी
व्यवहारश्रद्धा पण नथी.
नवतत्त्वोमां पुण्य, पाप ने आस्रव ए त्रण कारण छे ने बंध तेनुं कार्य छे. कुदेव अने कुगुरु ते बंध–