Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : ८६
आत्माना भान वगर ब्रह्मचर्य, दया वगेरे शुभभावथी कंईक अकाम निर्जरा थाय ते पण धर्ममां गणाती नथी.
पण आत्मामां नवतत्त्वनुं भान करीने एक स्वभावना आश्रये शुद्धता वधे अने अशुद्धता तथा कर्मो टळे ते
निर्जरा मोक्षनुं कारण छे.
आठमुं बंधतत्त्व छे. विकारभावमां जीवनुं बंधाय जवुं अटकी जवुं ते बंधतत्त्व छे. कोई परना कारणे
जीवने बंधन थतुं नथी, पण पोतानी पर्याय विकारभावमां रोकाई गई ते ज बंधन छे. पुण्य–पापना भावोथी
आत्मा मुकातो नथी पण बंधाय छे, तेथी ते पुण्य–पाप बंधतत्त्वनुं कारण छे. तेने बदले पुण्यने धर्मनुं साधन
माने अथवा तेने सारुं माने तो ते बंध वगेरे तत्त्वनुं स्वरूप समज्यो नथी. दया, पूजादि शुभभाव के हिंसा,
चोरी वगेरे अशुभभाव ते विकार छे, तेना वडे आत्मा मुकातो नथी पण बंधाय छे. पुण्य अने पाप ए बंने
भावो मलिन भाग छे, बंधनभाव छे. अत्यारे पुण्य करीए तो भविष्यमां सारी साम्रगी मळे, ने सारी सामग्री
होय तो धर्म करवानी सगवडता थाय,–एम जेणे मान्युं तेणे पुण्यने खरेखर बंधतत्त्वमां नथी जाण्युं. खरेखर
तो पुण्यभावने लीधे बाह्य सामग्री मळती नथी, केम के पुण्य जुदी चीज छे ने अजीव सामग्री जुदी स्वतंत्र
चीज छे. पुण्यने अने बाह्यसामग्रीने मात्र निमित्त–नैमित्तिक मेळ छे. ए निमित्त–नैमित्तिक मेळनी जे ना पाडे
तेने पण पुण्यतत्त्वनी व्यवहारु साची श्रद्धा नथी. बहारनी अनुकूळ सामग्री वडे जीवने धर्म करवो ठीक पडे–ए
मान्यतामां पण जीव अने अजीवनी एकतानी बुद्धि छे. पहेलांं भिन्न भिन्न नवतत्त्वोने जाण्या वगर अभेद
आत्मानी प्रतीति थाय नहि अने ते प्रतीति वगर धर्म थाय नहीं.
त्रिकाळ जीवतत्त्वना कारणे बंध नथी तेम ज अजीवतत्त्वने कारणे पण बंध नथी. बंधतत्त्व ते त्रिकाळी
जीवतत्त्वथी भिन्न छे तेम ज अजीवथी पण भिन्न छे. बंध ते पर लक्षे थती क्षणिक विकारी लागणी छे, ते स्वतंत्र
छे. बंधतत्त्व त्रिकाळी नथी पण क्षणिक छे. आत्मस्वभावने चूकीने जे मिथ्यात्वभाव थाय तेने, तेम ज
आत्माना भान पछी पण जे रागादि भावो थाय तेने बंधतत्त्व जाणे, अने कुतत्त्वोना कहेनारा कुदेव–कुगुरुओने
पण बंधतत्त्वमां जाणे, त्यारे बंधतत्त्वने जाण्युं कहेवाय. श्री अरिहंत भगवाने कहेला अने यथार्थ वस्तुरूप आ
नवतत्त्वोने पण जे न जाणे ने कुतत्त्वोने माने तेणे खरेखर अरिहंत भगवानने ओळख्या नथी, ने ते
अरिहंतनो भक्त नथी.
हे भाई! जो तुं एम कहेतो हो के हुं अरिहंतदेवनो भक्त छुं, हुं अरिहंतप्रभुनो दास छुं,–तो श्री
अरिहंतदेवे कहेला नवतत्त्वोने तो बराबर जाण, अने तेनाथी विरुद्ध कहेनारा कुदेव–कुगुरुनुं सेवन छोड.
भगवाने जे प्रमाणे कह्या ते प्रमाणे नवतत्त्वोने व्यवहारे पण तुं न जाण तो तें अरिहंत भगवानने मान्या नथी,
अने तुं अरिहंत भगवाननो भक्त व्यवहारे पण नथी. व्यवहारे पण अरिहंत प्रभुनो भक्त ते कहेवाय के जे
तेमणे कहेलां नवतत्त्वोने जाणे ने तेनाथी विरुद्ध कहेनारा बीजाने माने ज नहीं. नवतत्त्वोने जाणवा तेमां पण
अनेकतानुं–भेदनुं लक्ष छे, ते भेदना लक्षे रोकाय त्यां सुधी व्यवहारश्रद्धा छे पण परमार्थश्रद्धा नथी; ज्यारे ते
अनेकताना भेदनुं लक्ष छोडीने अभेद स्वभावनी एकताना आश्रये अनुभव करे त्यारे परमार्थ सम्यग्दर्शन
थाय छे अने त्यारे ज जीव अरिहंतदेवनो खरो भक्त अर्थात् जिनेश्वरनो लघुनंदन कहेवाय छे.
जीव पोते बंधनभावमां अटके तेमां तेने अजीवनुं निमित्तपणुं छे. एकला चैतन्यमां, अजीवना निमित्त
वगर पण जो बंधन थाय तो तो ते स्वभाव थई जाय. एकला चैतन्यमां स्वभावथी बंधन न होय पण
चैतन्य–नी उपेक्षा करीने अजीवना लक्षमां अटके त्यारे बंधनभाव थाय छे. अवस्थामां क्षणिक बंधनतत्त्व छे–
एम तेने जाणवुं जोईए.
अहो, घणा जीवो बहारनी धमालमां ज वखत गूमावे छे पण अंतरमां तत्त्व समजवानी दरकार करता
नथी, अने ते समजवा माटे निवृत्ति लईने सत्समागम करता नथी. एने मनुष्यभव पामवानो शुं लाभ? अरे,
भगवान्! अनंतकाळे सत् सांभळवानां अने समजवानां टाणां आव्यां, माटे आत्मानी दरकार करीने समज रे
समज! ‘हमणां नहि ने पछी करीशुं’–एम करवामां रोकाईश तो सत् समजवाना टाणां चाल्या जशे, ने फरी
अनंतकाळे पण आवो अवसर मळवो