Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर: २४७७ : ३५ :
मुक्ति
अने संसार
[] आत्मा अनादिकाळथी छे, अत्यार सुधीनो अनंत काळ तेणे क्यां काढ्यो? तेनी कदी मुक्ति
थई नथी, पण अज्ञानपणे संसारमां ज रखडयो छे. अनंतकाळथी एक सेकंड पण आत्मतत्त्वने लक्षमां लीधुं
नथी. रागादिथी ने परथी भिन्न जेवो एकत्व चैतन्यस्वभाव छे तेवो जो सत्समागमे जाणे तो तेनो अनुभव
थया विना रहे नहि. अने एवो अनुभव प्रगट कर्या विना त्रणकाळमां मुक्ति नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मानो
अनुभव केम थाय तेनी आ वात छे.
[] आ एकत्व अधिकारना ३२मा श्लोकमां आचार्यदेव कहे छे के निश्चयथी एकत्वरूप जे अद्वैत्
आत्मस्वभाव छे ते ज परम अमृत छे, –मोक्ष छे; अने व्यवहारथी कर्मो द्वारा करवामां आवेलुं जे द्वैत छे ते
संसार छे. आत्मा अनादिअनंत छे, ते कोई संयोगोथी उत्पन्न थयो नथी, ने तेनो कदी नाश थतो नथी;
ज्ञानस्वभावथी ते सदा एकरूप छे, अने तेनी अवस्थामां जे रागद्वेष थाय छे ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी पण द्वैत
छे,–आम जाणीने एकत्वस्वभावनो आश्रय करवो ते परम अमृत छे, तेनाथी संसार टळी जाय छे, ने मोक्षदशा
प्रगटे छे.
[] जेम सराण उपर कोई माणस लोढुं घसे त्यां लसरका मारीने ते जोतो जाय छे के लोढामां केटलो
चळकाट थयो, ने केटलो काट टळ्‌यो? तेम आत्मामां राग–द्वेष पुण्य–पाप ते काट जेवा छे, ते आत्मानो स्वभाव
नथी, आत्मा तो चैतन्य चमकतीज्योत छे. आम राग–द्वेष रहित चैतन्यस्वभाव शुं छे तेने जाणीने अनुभव
करे तो पर्याये पर्याये राग–द्वेष विकार टळतो जाय छे ने चैतन्यप्रकाश प्रगटे छे. पोतानी पर्यायमांथी केटलो
विकार टळ्‌यो ने केटली निर्मळता प्रगटी तेने साधक जीव जाणे छे.
[] आत्मानो स्वभाव शुं अने विकार शुं तेनो अनुभवथी विवेक करवो जोईए. ए विवेक प्रगट्या
वगर राग–द्वेषथी खसीने चैतन्यमां लीनता थाय नहि. माखी जेवुं प्राणी पण साकर अने फटकडीना स्वादनो
विवेक करे छे, अने फटकडी उपर बेसती नथी पण साकर उपर जईने बेसे छे, अने साकरना स्वादमां ते लीन
थाय छे. तेम, विकारनो स्वाद आकुळ छे ने आत्मानो स्वभाव अनाकुळ छे, तेनो जेने विवेक थयो छे ते
विकारना स्वादने छोडीने आत्मस्वभावना स्वादमां लीन थाय छे. शरीरादि संयोगनो तो आत्मामां अभाव छे
ने पुण्य–पाप वगेरे मलिन भावो छे, तेने ज जे आत्मा माने छे तेने ते मलिनतारहित चैतन्यना स्वादनो
अनुभव थतो नथी. हुं ज्ञानमूर्ति पवित्र सहजानंद छुं–एवा स्वभावनुं श्रवण–मनन अने रुचि करे तो तेनो
अनुभव अने लीनता थया विना रहे नहीं. सम्यक्श्रद्धाना जोरे शरीर–मन–वाणी तेम ज राग–द्वेषरहित शुद्ध,
अनादिअनंत एकरूप चैतन्यस्वभाव छुं–एवी प्रतीति थतां तेने आनंदनो अनुभव प्रगटे छे.
[] कोई कहे के अमारे पहेलांं शुं करवुं? तो तेनो उत्तर एम छे के, पहेलांं सत्समागमे आत्मानी
यथार्थ ओळखाण करवी; पोतानो स्वभाव शुं अने परभाव शुं? तेनो विवेक करवो जोईए.
[] अहीं आचार्यदेव कहे छे के आत्माना एकत्त्वस्वभावनुं भान अने अनुभव थाय ते परम अमृत
छे. राग ते हुं, जडनी क्रिया हुं करुं अने व्यवहारना आश्रयथी कल्याण थाय–एवी मान्यता ते झेर जेवी छे,–
संसारनुं कारण छे. अने विकाररहित एकत्व चैतन्यस्वभावनी प्रतीत करीने तेनो आश्रय करवो ते परम अमृत
छे, मोक्षनुं कारण छे.
[] हुं शरीरादि जडनी क्रियाथी भिन्न छुं, मारो धर्म जडनी क्रियामां नथी, एवुं पण जेने भान नथी तेने
विकाररहित ज्ञानस्वभावनी प्रतीति होय ज नहि. जड–चेतननी जुदाईनुं पण जेने भान नथी अने शरीरनी क्रिया
हुं करुं एम माने छे तेम ज ते क्रियाथी तथा पुण्यथी धर्म माने छे ते जीव मंदकषायथी पुण्यभाव करे तो पण जडनी
क्रियानो अने विकारनो स्वामी थईने मिथ्यात्त्वने पोषे छे. अने, हुं शरीरादि जडथी त्रिकाळ जुदो छुं, तेनी क्रियानो
हुं कर्ता नथी तेम ज पुण्य–पापना भाव थवा छतां ते मारुं खरुं स्वरूप नथी, तेनाथी मारो धर्म थतो नथी, हुं
ज्ञानस्वभावी छुं–आवी यथार्थ प्रतीत ते धर्मनी शरूआत छे. आ सिवाय दया वगेरे भावमां