नथी. रागादिथी ने परथी भिन्न जेवो एकत्व चैतन्यस्वभाव छे तेवो जो सत्समागमे जाणे तो तेनो अनुभव
थया विना रहे नहि. अने एवो अनुभव प्रगट कर्या विना त्रणकाळमां मुक्ति नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मानो
संसार छे. आत्मा अनादिअनंत छे, ते कोई संयोगोथी उत्पन्न थयो नथी, ने तेनो कदी नाश थतो नथी;
ज्ञानस्वभावथी ते सदा एकरूप छे, अने तेनी अवस्थामां जे रागद्वेष थाय छे ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी पण द्वैत
छे,–आम जाणीने एकत्वस्वभावनो आश्रय करवो ते परम अमृत छे, तेनाथी संसार टळी जाय छे, ने मोक्षदशा
प्रगटे छे.
नथी, आत्मा तो चैतन्य चमकतीज्योत छे. आम राग–द्वेष रहित चैतन्यस्वभाव शुं छे तेने जाणीने अनुभव
करे तो पर्याये पर्याये राग–द्वेष विकार टळतो जाय छे ने चैतन्यप्रकाश प्रगटे छे. पोतानी पर्यायमांथी केटलो
विवेक करे छे, अने फटकडी उपर बेसती नथी पण साकर उपर जईने बेसे छे, अने साकरना स्वादमां ते लीन
थाय छे. तेम, विकारनो स्वाद आकुळ छे ने आत्मानो स्वभाव अनाकुळ छे, तेनो जेने विवेक थयो छे ते
विकारना स्वादने छोडीने आत्मस्वभावना स्वादमां लीन थाय छे. शरीरादि संयोगनो तो आत्मामां अभाव छे
ने पुण्य–पाप वगेरे मलिन भावो छे, तेने ज जे आत्मा माने छे तेने ते मलिनतारहित चैतन्यना स्वादनो
अनुभव थतो नथी. हुं ज्ञानमूर्ति पवित्र सहजानंद छुं–एवा स्वभावनुं श्रवण–मनन अने रुचि करे तो तेनो
अनुभव अने लीनता थया विना रहे नहीं. सम्यक्श्रद्धाना जोरे शरीर–मन–वाणी तेम ज राग–द्वेषरहित शुद्ध,
अनादिअनंत एकरूप चैतन्यस्वभाव छुं–एवी प्रतीति थतां तेने आनंदनो अनुभव प्रगटे छे.
संसारनुं कारण छे. अने विकाररहित एकत्व चैतन्यस्वभावनी प्रतीत करीने तेनो आश्रय करवो ते परम अमृत
छे, मोक्षनुं कारण छे.
हुं करुं एम माने छे तेम ज ते क्रियाथी तथा पुण्यथी धर्म माने छे ते जीव मंदकषायथी पुण्यभाव करे तो पण जडनी
क्रियानो अने विकारनो स्वामी थईने मिथ्यात्त्वने पोषे छे. अने, हुं शरीरादि जडथी त्रिकाळ जुदो छुं, तेनी क्रियानो
ज्ञानस्वभावी छुं–आवी यथार्थ प्रतीत ते धर्मनी शरूआत छे. आ सिवाय दया वगेरे भावमां