विकाररहित एकला ज्ञानमूर्ति आत्माना स्वभावनी प्रतीत छोडीने जेटला पुण्य–पापरूप द्वैतभाव करे तेनाथी
संसार–परिभ्रमण थाय छे. चैतन्यना पवित्र स्वभावनो आदर छोडीने व्यवहारने एटले पुण्यने के संयोगने
पोताना मानवा तेनाथी संसारभ्रमण थाय छे. आ एकत्त्व अधिकारमां आचार्यदेव कहे छे के आत्माना
एकत्वस्वभावनुं अवलंबन ते मुक्तिनुं कारण छे अने एक चीजने बीजी चीजना अवलंबननो भाव ते संसार छे.
अंतरना स्वभावनी सन्मुख थईने चैतन्यस्वभावनी रुचि अने लीनता करे तो, अनंत प्रतिकूळता आवी पडे
छतां तेनी रुचि ने लीनता खसती नथी बहारनी अनुकूळता ते कांई सुख नथी, अने बहारनी प्रतिकूळता ते
कांई दुःख नथी. शरीरमां रोग थाय ते दुःखनुं कारण नथी, केम के रोगना प्रमाणमां दुःख थतुं नथी पण ममता
करे तेटलुं दुःख थाय छे. कोईने घणो रोग होय पण ममता थोडी होय तो तेने थोडुं दुःख थाय छे, ने कोईने थोडो
रोग होय पण ममता घणी होय तो तेने विशेष दुःख थाय छे, ए रीते ममताना प्रमाणमां दुःख छे, संयोगना
प्रमाणमां दुःख नथी. अज्ञानीने तो संयोगमां एकत्वबुद्धि छे एटले ते संयोगने दुःखनुं कारण मानीने तेने दूर
करवा मथे छे. परंतु राग–द्वेषमां आत्मानुं जे एकत्व थाय छे ते दुःख छे, ते राग–द्वेषमां थता एकत्वने ते
छोडतो नथी. चैतन्यना एकत्वस्वभावना भानवडे रागद्वैषमां एकत्व छोडुं तो सुख प्रगटे–एम ते जाणतो नथी.
मनावी दीधो छे. परंतु पुण्य तो विकार छे, आत्माना स्वभावथी अन्य छे. आत्माना स्वभाव संबंधमां
अनादिथी जीवने भ्रांति छे, साची समजणवडे ते भ्रांति टाळे तो धर्म थाय. शरीरमां जराक रोग थाय तो
ते टाळवा माटे चिंता करे छे, परंतु आत्मामां अनादिकाळथी मिथ्याभ्रांतिरूप रोग छे ते केम मटे? तेनो उपाय
कदी विचार्यो नथी. शरीरथी भिन्न आत्मा शुं चीज छे ते लक्षमां लीधुं नथी एटले शरीर ते ज हुं–एवी देहद्रष्टिथी
शरीरनो रोग भासे छे अने ते टाळवा माटे चिंता करे छे, परंतु आत्मामां मिथ्याभ्रांतिना रोगने लीधे अनंत
काळथी भावमरणे मरी रह्यो छे, ते रोग भासतो नथी अने तेने टाळवानो उपाय करतो नथी.
आत्मसिद्धिमां श्रीमद् कहे छे के–
मांडे तो रोग मटे नहि. तेम शास्त्रोमां तो जन्म–मरणनो रोग टाळवानी दवा छे, पण क्यारे कई दवा लागु पडे
ते ज्ञानीरूपी वैद वगर खबर पडे नहि, माटे एकवार सत्समागम जोईए. शास्त्रमां क्यां कई अपेक्षाए कथन
छे ते गुरुगम वगर समजाय नहि. गुरुगम वगर पोतानी मेळे अर्थ करवा जाय तो अर्थनो अनर्थ करी नांखे.
ज्ञान तो पोतानी पात्रताथी ज थाय छे, पण निमित्त तरीके गुरुगम होय छे. भावरोगने टाळवानुं
औषध शुं? ‘औषध विचार ने ध्यान.’ सत्समागमे आत्मस्वभावनुं श्रवण करीने पछी अंतरमां तेनो विचार
अने एकाग्रतानो अभ्यास करवो ते अनादिनो रोग टाळवानी दवा छे. परंतु श्रवण करीने जो मंथन अने
एकाग्रता न करे तो भावरोग मटे नहि.
प्रगट न करे, अने संयोगथी के व्यवहारथी लाभ थाय–एवी बुद्धि राखे तेने भगवान मिथ्यात्वी कहे छे. सधन
के निर्धन वगेरे बधा जीवोने माटे धर्म तो चैतन्यस्वभावना शरणे