प्रभुताने चूकीने परना आश्रये लाभ मानीने जीवो संसारमां रखडी रह्या छे. पराश्रये शुभ–अशुभ द्वैैैैैैैैतनी
उत्पत्तिमां लाभ मान्यो छे तेथी संसार छे. चैतन्यस्वरूप आत्मानी प्रतीत करीने तेमां ठरे तो द्वैत टळे एटले
संसार टळे ने मुक्तदशा प्रगटे.
आत्मधर्मनी शरूआत परथी जुदापणाना भानथी ने स्वमां एकत्वनी श्रद्धा–ज्ञानथी थाय छे. पहेलांं
एवी श्रद्धा–ज्ञान प्रगटया पछी तेमां लीनतारूप चारित्र प्रगटे छे, ते मुनिदशा छे; पछी वीतरागता थतां
केवळज्ञान अने मुक्ति थाय छे.
गतिमां रखडे छे, पण स्वभावना बेहद महिमाने एक समय पण जाण्यो नथी. ते विना व्रत, पच्चखाण के मुनिदशा
होय नहि. श्री आचर्यदेव कहे छे के निश्चयथी जेनो एक चैतन्यस्वभाव छे एवा आत्माने जाणवो ते अमृतपद छे;
पर तरफनो आश्रयभाव ते संसार छे ने स्वभाव तरफनो आश्रयभाव ते मुक्तिनुं कारण छे.
पुण्यथी धीमे धीमे धर्म थशे’ ए वात त्रणकाळमां जूठी छे. पुण्य विकार छे, तेनाथी बंधन छे, तेनाथी धर्म नथी.
धर्म तो पुण्य–पापरहित आत्मामां छे. तेनी प्रथम श्रद्धा करवा माटे पण पुण्यनी मदद नथी. पुण्य–पापरहित
स्वभाव ते धर्म छे.–आवुं सांभळतां, अरे! पुण्यनी पण ना! एम क.ेटलाकने थई जाय छे; पुण्य विना आत्माथी
ज धर्म थाय छे ते वातनी तेने खबर नथी, सांभळी नथी, रुचि नथी. ‘हुं परथी भिन्न शुद्ध ज्ञायक छुं, एक
परमाणुमात्र मारुं नथी’ एम माननार ज्ञानी जेटली तृष्णा ढाळशे तेटली अज्ञानी टाळी शकशे नहि. अज्ञानीए
बहारथी बधुं मानी लीधुं छे; कायकलेशथी आत्मधर्म थतो नथी. धर्म तो आत्मानुं सहज स्वरूप छे, तेमां स्थिरता ते
धर्मनी क्रिया छे. भगवान आत्मानी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान अने तेमां स्थिरता, ए ज ज्ञाननी अंर्तक्रिया छे.
भिन्न, निरावलंबी छे, ते स्वतंत्र स्वभावने मानतो नथी, ते भगवान पासे जशे ज शेनो?–अने कदाच जाय
तो य शुं सांभळशे? (अत्यारे सत्यस्वभावनी वात सांभळतां तेनो जे विरोध करे छे ते भगवान पासे जईने
पण विरोध करशे.)
उपाडी, अनंत संसारमां रखडे छे. माणस माने के न माने पण सत्य तो कहेवुं ज पडे; सत्यने गोपवी शकाय नहीं.