Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 18 of 21

background image
: मागशर: २४७७ : ३७ :
ज थाय छे. प्रभु! तने तरी प्रभुता बेसती नथी तेथी तुं पराश्रये धर्म मानी रह्यो छे. पोताना चैतन्यतत्त्वनी
प्रभुताने चूकीने परना आश्रये लाभ मानीने जीवो संसारमां रखडी रह्या छे. पराश्रये शुभ–अशुभ द्वैैैैैैैैतनी
उत्पत्तिमां लाभ मान्यो छे तेथी संसार छे. चैतन्यस्वरूप आत्मानी प्रतीत करीने तेमां ठरे तो द्वैत टळे एटले
संसार टळे ने मुक्तदशा प्रगटे.
पहेलांं सत्समागमे साची समजण वडे शरीर अने पुण्य–पापमां एकत्वबुद्धि टाळीने, चैतन्यस्वभावी
आत्मामां एकत्वबुद्धि प्रगट करवी जोईए. ए माटे पोतानी प्रात्रताथी श्रवण–मनन जोईए. अपूर्व
आत्मधर्मनी शरूआत परथी जुदापणाना भानथी ने स्वमां एकत्वनी श्रद्धा–ज्ञानथी थाय छे. पहेलांं
एवी श्रद्धा–ज्ञान प्रगटया पछी तेमां लीनतारूप चारित्र प्रगटे छे, ते मुनिदशा छे; पछी वीतरागता थतां
केवळज्ञान अने मुक्ति थाय छे.
[११] धर्म ते परम आनंदनुं कारण छे, अने तेनी शरूआत पण आत्माना आनंदथी थाय छे. धर्म ते
दुःखदायक नथी पण शांतिरूप छे. चैतन्यतत्त्वना महिमाना भान वगर पाप अने पुण्य करीने अनंतकाळथी जीव चार
गतिमां रखडे छे, पण स्वभावना बेहद महिमाने एक समय पण जाण्यो नथी. ते विना व्रत, पच्चखाण के मुनिदशा
होय नहि. श्री आचर्यदेव कहे छे के निश्चयथी जेनो एक चैतन्यस्वभाव छे एवा आत्माने जाणवो ते अमृतपद छे;
पर तरफनो आश्रयभाव ते संसार छे ने स्वभाव तरफनो आश्रयभाव ते मुक्तिनुं कारण छे.
[लींबडी शहेरमां वीर सं. २४७६ ना पोष सुद ४ ना रोज
पद्म. एकत्व अधिकार गा. ३२ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन]
• • • • • • •
जीवे पुण्यनी वात सांभळी छे,
–धर्मनी वात कदी सांभळी नथी.
पुण्य–पाप केम थाय ते वात अनंतवार जीवे सांभळी, पण देहादिथी ने पुण्य–पापथी जुदो, परावलंबन
वगरनो हुं छुं–एवा भिन्न आत्माना शुद्धस्वरूपनी वात पूर्वे कदी श्रवण करी नथी...... ‘पुण्य करो! पुण्य करो!
पुण्यथी धीमे धीमे धर्म थशे’ ए वात त्रणकाळमां जूठी छे. पुण्य विकार छे, तेनाथी बंधन छे, तेनाथी धर्म नथी.
धर्म तो पुण्य–पापरहित आत्मामां छे. तेनी प्रथम श्रद्धा करवा माटे पण पुण्यनी मदद नथी. पुण्य–पापरहित
स्वभाव ते धर्म छे.–आवुं सांभळतां, अरे! पुण्यनी पण ना! एम क.ेटलाकने थई जाय छे; पुण्य विना आत्माथी
ज धर्म थाय छे ते वातनी तेने खबर नथी, सांभळी नथी, रुचि नथी. ‘हुं परथी भिन्न शुद्ध ज्ञायक छुं, एक
परमाणुमात्र मारुं नथी’ एम माननार ज्ञानी जेटली तृष्णा ढाळशे तेटली अज्ञानी टाळी शकशे नहि. अज्ञानीए
बहारथी बधुं मानी लीधुं छे; कायकलेशथी आत्मधर्म थतो नथी. धर्म तो आत्मानुं सहज स्वरूप छे, तेमां स्थिरता ते
धर्मनी क्रिया छे. भगवान आत्मानी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान अने तेमां स्थिरता, ए ज ज्ञाननी अंर्तक्रिया छे.
लोकोए बहारमां धर्म मान्यो छे अने उपदेशक पण तेवा मळी रहे छे. ‘पुण्य बांधी देवलोकमां जशुं, त्यां
सुख भोगवशुं अने भगवान पासे जई धर्म सांभळशुं’–वगेरे विकल्पो करे छे; पण पोते भगवान छे, परथी
भिन्न, निरावलंबी छे, ते स्वतंत्र स्वभावने मानतो नथी, ते भगवान पासे जशे ज शेनो?–अने कदाच जाय
तो य शुं सांभळशे? (अत्यारे सत्यस्वभावनी वात सांभळतां तेनो जे विरोध करे छे ते भगवान पासे जईने
पण विरोध करशे.)
निरपेक्ष आत्मतत्त्वना ज्ञान वगर जीवो मोहमां जोडाया छे, ने संसारनो भार उपाडे छे. भले ‘त्यागी’
नाम धरावे, साधु हो के गृहस्थ हो पण जेनी द्रष्टि देह उपर छे, ते देहक्रिया पोतानी मानी, पुण्य–पापनो भार
उपाडी, अनंत संसारमां रखडे छे. माणस माने के न माने पण सत्य तो कहेवुं ज पडे; सत्यने गोपवी शकाय नहीं.
–समयसार–प्रवचनो भाग १ पृ. १२५–६.