खरेखर श्रमण छे; श्रमणनी आवी अंर्तदशा थई होय छे, ने ते अल्पकाळे मोक्ष पामे छे. जेम माखी साकरनो
स्वाद लेवामां एवी लीन थाय छे के त्यांथी खसवा मांगती नथी, साकरनी जेम आत्मा अतींद्रिय आनंदरसनो
डुंगर छे; तेना स्वादनो अनुभव करवामां मुनिनो आत्मा एवो लीन थयो–एवो जामी गयो के त्यांथी बहार
नीकळवानो ते आळसु छे, स्वभावना अपूर्व आनंदमांथी जरा य बहार नीकळवानुं गमतुं नथी. ते श्रमण
स्वरूपना आनंदमां तृप्त–तृप्त होवाथी, जाणे के स्वरूपनी बहार नीकळवाना आळसु–सुस्त होय एम स्वरूप–
प्रशांतिमां मग्न थईने रह्या छे. जेम कोई गरीबने घणा काळे मांड साकरनो गांगडो मळ्यो होय ने ममताथी
तेने चूस्या करे, तेम अहीं मुनिराजने पूर्वे अनंतकाळमां नहि मळेलो, आत्माना आनंद–अमृतरसनो एवो
अपूर्व अनुभव प्रगट्यो छे के तेमां ज ते लीन थया छे, तेमांथी बहार नीकळवुं गोठतुं नथी, स्वभावना
अनुभवमांथी बहार नीकळवानी तेमने आळस थाय छे. जुओ तो खरा, आचार्यदेवनी शैली! जगतना जीवो
तो धर्म करवाना आळसु होय, पण आ अल्पकाळे मोक्ष जनारा मुनिओ तो धर्मनी बहार नीकळवाना आळसु
छे, एम आचार्यदेव कहे छे. जेम घोर ऊंघमां पडेलो अवाजथी जागे नहि तेम अहीं आत्मानी जागृतिथी
स्वरूपनी प्रशांतिमां लीन थयेला मुनि गमे तेवी प्रतिकूळता आवे तो य स्वरूपनी बहार नीकळता नथी.
वात लेवी छे. स्वरूपनी बहार लक्ष जईने शुभवृत्ति ऊठे तो ते मोक्षने रोकनार छे, तेथी ते अयथाचार प्रवृत्ति
छे. शुद्धोपयोग प्रगट करीने जे आत्मस्वरूपमां एकमां ज लीनपणे वर्ते छे ते अयथाचार रहित छे; अने ते
नित्यज्ञानी छे.–आवा संपूर्ण श्रामण्यवाळा साक्षात् श्रमणने मोक्षतत्त्व जाणवुं; केम के ते शुद्धोपयोगी श्रमण
फरीने प्राणधारणरूप दीनताने पामता नथी, अने बीजा विकारभावरूप परिणमवाना अभावने लीधे शुद्ध
स्वभावमां अवस्थित परिणतिवाळा रहे छे.
अयथाचाररहित वर्ते छे,–स्वरूपथी बहार नीकळीने कोई विकल्प ज ऊठतो नथी, तथा जे नित्य ज्ञानी छे,–
आवी जेनी दशा थई छे ते खरेखर संपूर्ण श्रामण्यवाळा साक्षात् श्रमणने मोक्षतत्त्व जाणवुं. शुभरागनो विकल्प
ऊठे ते पण यथाचार नथी. उपवास करवानुं माने अने बीजा दिवसनी सवारनी खीचठीना कलाक गणतो होय
ते यथाचार न कहेवाय, ते तो शुभभाव पण नथी, अशुभभाव छे.
थईने तेमांथी घी टपकतुं होय, तेम मुनि शुद्धोपयोगवडे चैतन्यसमुद्रमां एवा लीन थया के अंदर आत्मानो
आनंद नीतरे छे, आत्माना आनंदमां रसबोळ थई गया छे. जुओ, आ मोक्षनी तैयारीवाळा मुनिनी दशा!
फूवारा छूटे छे,–आनंदना झरणां वहे छे, तेमां विचरतो आत्मां तृप्त–तृप्त थई गयो छे. संसारना तापथी छूटीने
शांति लेवानो आ उपाय छे.
राजाने बेसाडयो, आबंलीने जोतांवेंत ज राजाने अमी छूटयुं. तेम