Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : ८६
ऊंधी श्रद्धावाळो जीव अज्ञानने लीधे आत्मामां निरंतर मोहने एकत्र करे छे; ते ऊंधी श्रद्धावाळा जीवो भले
द्रव्यलिंगी थया होय पण तेमणे आत्मामां साची मुनिदशा प्रगट करी नथी तेथी ते श्रमण नथी पण
श्रमणाभास छे; तेमनी परिणति आत्मामां स्थिर थती नथी पण अनंत कर्मफळना भोगवटाथी भयंकर एवा
अनंतकाळ सुधी अनंत भावांतररूप परावर्तन वडे तेओ अनवस्थित वृत्तिवाळा रहे छे, तेथी ते ऊंधी
श्रद्धावाळा श्रमणाभास द्रव्यलिंगीओने संसारतत्त्व ज जाणवुं.
अहीं द्रव्यलिंगीने संसारतत्त्व कह्युं तेथी एम न समजवुं के मिथ्याद्रष्टि गृहस्थो ते संसारतत्त्वथी बहार
रही जाय छे. अहीं उत्कृष्ट वात लीधी छे तेथी द्रव्यलिंगी साधुने संसारतत्त्व कह्यो छे, त्यां तेनी नीचेना
अज्ञानीओ अर्थात् मिथ्याद्रष्टि गृहस्थ वगेरे तो तेना पेटामां आवी ज जाय छे. पंचमहाव्रत पाळनार
मिथ्याद्रष्टि साधुने पण ज्यां संसारतत्त्व ज कह्यो त्यां मिथ्याद्रष्टि गृहस्थनी शी वात?–ए तो संसारतत्त्व छे ज.
हुं ज्ञाता–द्रष्टा आत्मा छुं, रागनो एक अंश पण मारा ज्ञायकस्वभावमां नथी–आवुं भान जेणे अंतरमां
प्रगट कर्युं नथी अने बाह्यमां नग्न दिगंबर द्रव्यलिंगी थयो छे, ने पुण्यादिमां धर्म माने छे तो ते पण
अनंतसंसारमां रखडे छे. द्रव्यलिंग कांई कोईने मोक्ष पमाडी देतुं नथी. द्रव्यलिंगी तेने कहेवाय के जेने वस्त्रादि–
रहित नग्न दिगंबर शरीर होय, मंद कषाय होय, पंचमहाव्रत होय, पण आत्मानो अनुभव थयो न होय. जे
जीव पुण्य–पापमां धर्म मानतो होय, शरीरनी क्रियाथी आत्माने लाभ–नुकसान मनावतो होय ते जीव
द्रव्यलिंगी होय तोपण नित्य अज्ञानी वर्ततो थको अनंतसंसारमां रखडनार संसारतत्त्व ज छे. ‘द्रव्यलिंगी होय
तोपण’ एम कहेतां बीजा ऊंधी श्रद्धावाळा तो तेमां आवी ज गया.
जुओ, आ ऊंधी श्रद्धवाळा जीवो केवा होय ने साची श्रद्धावाळा जीवो केवा होय तेनो विवेक करीने,
पोताना भावमांथी ऊंधी श्रद्धानुं पोषण छोडवा माटेनी वात छे. जे सर्वज्ञदेवने व्यवहारे पण मानतो नथी अने
सर्वज्ञदेवे कहेला नवतत्त्वनी व्यवहारे पण जेने खबर नथी तेनी वात तो दूर रही, यथार्थ जैन संप्रदायमां
आवीने पण जेने आत्माना स्वभावनुं भान नथी अने ऊंधी तत्त्वश्रद्धाने जे सेवे छे ते पण अनंतसंसारमां
रखडनार छे.
जे बधा थईने एक आत्मा माने, अथवा आत्माने एकांत कूटस्थ के एकांत क्षणिक माने–एवानी वात
तो अहीं लीधी नथी, पण व्यवहारे जैनसंप्रदायमां आव्यो छे तेनी वात छे. जीव–अजीवादि नवतत्त्वो छे एम
स्वीकारतो होय, जैनवाडामां रहीने द्रव्यलिंगी त्यागी थईने व्रत पाळतो होय, पण पुण्यथी धर्म थाय–एम
तत्त्वने ऊंधुंं मानतो होय तो ते पण नित्य अज्ञानी वर्ततो थको अनंतसंसारमां रखडे छे; व्रत उपवासादि करतो
होवा छतां ते आत्माना यथार्थ ज्ञानथी रहित मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अंतरमां जेने आत्मानो अनुभव थयो नथी
ने बाह्यमां श्रमणपणानुं द्रव्यलिंग धारण करी लीधुं छे पण अंदर तो ऊंधी श्रद्धाने पोषे छे तेओ परमार्थ
श्रामण्यने पामेला नथी, तेमणे साधुदशानो भाव प्रगट कर्यो नथी एटले ते श्रमण नथी पण द्रव्यलिंगमां एटले
के बाह्य साधुना लेबासमां वर्तता श्रमणाभास छे. दिगंबर द्रव्यलिंगी मुनि सिवाय बीजो तो साधुनो बाह्य
लेबास पण नथी. द्रव्यलिंगना लेबासमां रहीने ‘हुं श्रमण छुं’ एम माने छे ने तत्त्वनी साची ओळखाण करता
नथी तेओ चारण भाटना वेष जेवा श्रमणाभासी छे. जेम कोई चारण भाट बाह्यथी राजानो भेख धारण करे,
अने राजा जेवो लागे, पण ते खरेखर राजा नथी; तेम ऊंधी श्रद्धावाळो जीव बाह्यथी द्रव्य्लिंगी थईने
पंचमहाव्रत पाळतो होय ते बाह्यमां श्रमण जेवो लागे पण ते खरो श्रमण नथी; तेवाने अहीं संसारतत्त्व कह्युं
छे.
धर्मी जीवने तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा होय छे. हुं शुद्ध ज्ञाता छुं–एम ते स्वीकारे छे. जेने पोताना शुद्ध
आत्मानो अनुभव प्रगट्यो छे एवा धर्मी गृहस्थ पण मोक्षना साधक छे. अने अज्ञानी द्रव्यलिंगी थयो होय
तोपण ते संसारनो ज साधक छे. आचार्यदेवे संसारतत्त्वमां साधारण गृहस्थनी वात मुख्य न लेतां
द्रव्यलिंगीनी वात मुख्य लीधी, केम के अन्य अज्ञानी जीवोने संसारमां रखडवामां ते निमित्त छे, ऊंधा उपदेशथी
ते जगतना जीवोने ऊंधे रस्ते दोरवामां निमित्त थाय छे. घरबार छोडीने जंगलमां जईने एकांत गुफामां
पद्मासन लगावीने बेठो होय अने ‘आ कायाने स्थिर राखवानी