Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 21

background image
: मागशर: २४७७ : २५ :
क्रिया हुं करुं छुं ने तेनाथी मने लाभ थाय छे’–एम मानतो होय तो ते क्षणे क्षणे मिथ्याश्रद्धाने सेवीने संसार
वधारी रह्यो छे.
कर्मना उदयने कारणे जीवने ऊंधी श्रद्धा थाय छे–एम नथी, पण जीव पोते स्वयं अविवेकथी पदार्थोनी
अयथार्थ श्रद्धा करे छे. पदार्थोना स्वरूपनी ऊंधी श्रद्धा करीने बाह्य क्रियाकांडथी धर्म माने–मनावे ते जीव
वर्तमानमां तो मिथ्यात्वभावने पोषे छे, ने ते ऊंधा भावना सेवनथी भविष्यमां पण अनंत कर्मफळना
उपभोगराशिथी भयंकर एवा अनंतकाळ सुधी विकारमां भावांतररूप परावर्तन तेने थया ज करे छे, एटले
तेनी परिणति सदाय अस्थिर रह्या करे छे पण आत्मामां कदी स्थिर थती नथी, तेथी ते ज संसारतत्त्व छे.
संसारतत्त्वनुं संसरण बताववा माटे भावांतररूप परावर्तननी वात लीधी छे. मिथ्याश्रद्धावाळो जीव
कोई भावरूपे स्थिर रहेतो नथी पण विकारी भावोमां क्षणे क्षणे तेनो पलटो थया ज करे छे; माटे ते ज
संसारतत्त्व छे, एम जाणवुं.
तत्त्वथी विरुद्ध श्रद्धानो भाव करीने आत्मा विकारभावमां पलटाया करे तेनुं नाम संसारतत्त्व छे.
विकार–पर्याय आत्मामां थाय छे, विकारनो कर्ता आत्मा छे–एम अहीं बताव्युं. अहीं अज्ञानीनी वात छे,
अज्ञानी विकारनो कर्ता थाय छे. अने, आत्मा पुण्य–पापनो ज्ञाता–द्रष्टा छे, ते विकारनो कर्ता नथी–एम
समयसारना कर्ता कर्म अधिकारमां कह्युं छे, त्यां धर्मीनी वात छे. शुद्धात्मस्वभावनी द्रष्टिवाळो धर्मी जीव
विकारनो कर्ता थतो नथी. अहीं ससारतत्त्वनुं वर्णन छे एटले अधर्मी जीव पोते विकारभावे परिणमे छे–एम
बताव्युं छे. अधर्मीनो अधर्मभाव एटले के संसार तेनी अवस्थामां थाय छे, जडमां थतो नथी.
जो बहारनी चीजोमां आत्मानो संसार होय तो ते मूकीने मरतां आत्मानी मुक्ति थई जवी जोईए!
माटे बहारनी चीजोमां आत्मानो संसार नथी. ‘हुं परनी व्यवस्था सरखी राखुं छुं, हुं छउं तो परनां काम थाय
छे, हुं सारो उपदेश दउं छुं तेथी तेनी असरथी मारे घणा शिष्यो थाय छे एटले मारा उपदेशनी असर पर उपर
पडे छे,–आवुं माननारा बधा मिथ्याद्रष्टि संसारमां रखडनारा छे. ऊंधी मान्यतावाळा द्रव्यलिंगी साधु पोते
संसारतत्त्व छे तेम ज ते साधुने गुरु तरीके मानीने ऊंधी मान्यताने पोषनार श्रावकत्व गृहस्थो पण
संसारतत्त्व छे; ऊंधा भावे ते जीवो भविष्यमां अनंतसंसारमां रखडशे. अने सवळी श्रद्धावाळा जीवोना
अल्पकाळे संसारना आरा आवी जवाना छे.
संसार आत्मानी दशामां छे, ते एक समय पुरतो विकार छे; ते छोडवा माटे विकार वगरना
वस्तुस्वभावनी–चैतन्यमूर्ति आत्मानी–द्रष्टि करवी जोईए, तेने बदले बाह्य चीजो छोडवाथी संसार छूटे एम
माननार मिथ्याद्रष्टि छे, ते कदी बाह्यद्रष्टि छोडीने अंतरस्वभावमां वळे नहि, ने तेनो संसार टळे
नहि. ‘तत्त्वनो निर्णय करवानुं शुं काम छे? छेवटे तो रागद्वेष घटाडवा छे ने! माटे राग–द्वेष घटाडवा मांडो,
अने राग–द्वेषने घटाडवा माटे बाह्य वस्तुओनो त्याग करो’–आम माननारा तथा कहेनारा, भले त्यागी होय
तोपण मिथ्याद्रष्टि छे ने ते संसारमां रखडनार छे. बाह्य संयोग छोडये राग–द्वेष छूटता नथी, बाह्य संयोग तो
अभव्य जीवे पण अनंतवार छोडया. तत्त्वनिर्णय करीने आत्मस्वभाव तरफ न वळे तो कदी राग–द्वेष टळे ज
नहि; माटे तत्त्वनिर्णय करीने आत्माना स्वभाव तरफ वळवुं ते ज संसारने टाळवानो उपाय छे.
संसार क्यां छे? ते ओळखावीने ते केम छूटे ते बताव्युं छे. भाई, तारी ऊंधी मान्यताथी ज
संसार छे, ते तारा स्वभावनी सवळी श्रद्धाए छूटशे. बाह्यमां संसार नथी ने बाह्यनी चीजो छूटवाथी ते
छूटतो नथी. छ महिनाना उपवास करीने ऊभो ने ऊभो सूकाई जाय ने अंदर मंदरागमां धर्म माने तथा
रोटला में छोडया–एम माने तो ते जीव संसारतत्त्वने सेवनारो छे. अज्ञानीनी द्रष्टि बाह्य संयोग उपर
छे तेथी ते बाह्य क्रिया देखीने तेमां धर्म मनावे छे, पण अंतरद्रष्टिथी जोनार ज्ञानी कहे छे ते जीव ऊंधी
मान्यताथी अधर्मने ज सेवे छे.
हुं चैतन्यबिंब ज्ञायकमूर्ति छुं, आहार मारा स्वरूपमां छे ज नहि तेथी तेने ग्रहनार के छोडनार हुं नथी,
–एम ज्ञानानंद स्वभावनुं भान करीने तेमां लीन रहेतां रागनी उत्पत्ति ज न थाय ने आहारनो