मिथ्याद्रष्टि, संसारतत्त्व छे. ते भले द्रव्यलिंगी श्रमण होय तोपण अनंत भावांतररूपे परावर्तन पामता थका
अस्थिर परिणतिवाळा रहेशे, तेथी ते संसारतत्त्व छे; वर्तमानमां तो तेनी परिणति अस्थिर छे ने भविष्यमां
पण ते अस्थिर परिणतिवाळा ज रहेशे. परिणति स्वरूपमां ठरे तो ते मोक्षनुं कारण छे. पण ज्यां स्वरूपनो
यथार्थ निर्णय नथी त्यां परिणति स्वरूपमां ठरे क्यांथी? एटले विकारमां ज परिणति बदल्या करे छे, ते ज
नवमी ग्रैवेयकनो देव थाय, वळी क्यारेक अशुभभाव करीने नरके जाय. घडीकमां पुण्य ने घडीकमां पाप, क्यारेक
मोटो राजा थशे ने वळी घडीकमां निगोद थशे–आम ऊंधी श्रद्धावाळो जीव अनंत भावांतरना परावर्तनमां रखडे
छे, तेथी ते संसारतत्त्व छे.
वगर (अर्थात् बंधना कारणरूप भाव वगर) कर्मो बंधाय नहि, तो त्यां पांचमे–छ
कारण माने छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे एटले के निगोदना भावने सेवनारा संसारतत्त्व छे.
नहि, एटले व्रतादिनो जे शुभभाव छे तेनाथी ज कर्मो बंधाय छे, तेथी ते बंधनुं कारण छे; अने रागरहित
रागने धर्मनुं के मुक्तिनुं कारणमाने छे ते अनवस्थित परिणतिवाळा रहेवाने लीधे संसार तत्त्व ज छे. कोईनी
कृपाथी जीवने मोक्ष मळतो नथी ने कोईनी अकृपाथी ते संसारमां रखडतो नथी; मिथ्याश्रद्धाथी जीवनी अस्थिर
परिणतिने संसार कह्यो छे.
ते संसारतत्त्वथी विरुद्ध एवा मोक्षतत्त्वनुं वर्णन २७२मी गाथामां करशे.
आत्मा जाणवानुं कहे छे, कांई पत्थरने अजडने के पाडाने कहेता नथी के
तुं आत्माने जाण! माटे, ‘अमे समजीए नहि’ एवो नकार लावशो
नहि. हुं हमणां तैयार नथी, मारे माटे सारो अवसर के सारो संयोग
नथी एम ओथ लेशो नहि. बराबर न्याय, युक्ति, प्रमाणथी शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप कहेवामां आवशे, तेनी होंश लावी हा ज पाडजो. जेम
साडात्रण क्रोड रोमेरोममां रजपूतनुं शौर्य ऊछळी जाय छे. तेम तत्त्वनो
महिमा सांभळतां पात्र चैतन्यनुं वीर्य ऊछळी जाय छे. सिद्ध भगवंतो
पूर्ण निर्मळदशाने पाम्या तेनी नात–जातनो वारसदार हुं छुं, में मारी
स्वतंत्रतानो बूंगियो सांभळ्यो–ए प्रमाणे, स्वतंत्रतानी वात सांभळी
हे जीव! तेनो महिमा लाव! श्री कुंदकुंद भगवान समयसारना बूंगिया
वगाडी गाणां गाय छे, ते सांभळी तुं न ऊछळे ए केम बने?