साथे उपाडीने अंदर न अवाय; तेम अंतरना चैतन्य–घरमां आववा माटे नवतत्त्वनी श्रद्धा करवी ते बारणुं छे
–निमित्त छे, पण ते नवतत्त्वना विचारना शुभरागथी कांई अभेद स्वभावमां पहोंचातुं नथी. तेम ज पहेलांं
नवतत्त्वना ज्ञानरूप आंगणे आव्या वगर पण अभेदमां जवातुं नथी.
पामीने आत्मानुं कल्याण केम थाय? तेनी आ वात छे.
अजीव, पुण्य ने पाप ए चार तत्त्वोनुं वर्णन थई गयुं छे.
नी मूडी होय तेने करोड रू. नी मूडीवाळो माने तो तेने साचो मान्यो कहेवाय, पण करोड रूा. नी मूडीवाळाने
हजार रू. नी मूडीवाळो ज माने तो ते मान्यता साची न कहेवाय. करोड रू. नी मूडीनुं ज्ञान कर्या पछी, करोड रू.
नी मूडी पोताने केम थाय ते वात तो जुदी छे. तेम आत्मा अनंत गुणनो स्वामी, सिद्ध भगवान जेवो छे; तेने
तेवा पूरा स्वरूपे पहेलांं विकल्पथी मानवो ते व्यवहारे जीवतत्त्वनी साची मान्यता छे, ते पुण्य परिणाम छे.
चैतन्यतत्त्वनी निर्विकल्प श्रद्धा करवा पहेलांं तेवो विकल्प आवे छे. विकल्पथी पण स्वीकार तो पूरानो ज छे.
आत्माने सिद्धसमान पूरो न माने ने क्षणिक विकारवाळो ज माने तेने तो जीवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा पण नथी.
विकल्पथी मनद्वारा पण परिपूर्ण जीवतत्त्वने जे न जाणे तेने परमार्थश्रद्धा थती नथी. नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा
ते पुण्य छे, ते धर्म नथी. तो पछी बहारनी क्रियामां तो धर्म होय ज शेनो?
संसारभ्रमण केम टळे?–ए प्रकारे जीवादि तत्त्वोनो विचार करतो नथी. हजी नवतत्त्वना विचारमां पण रागना
प्रकार पडे छे; केम के नवे तत्त्वनो विकल्प एक साथे होतो नथी पण क्रमे क्रमे होय छे, तेथी तेमां रागमिश्रित
विचार छे. पहेलां रागमिश्रित विचारथी नवतत्त्वनो निर्णय करवो ते व्यवहारश्रद्धा छे; ते हजी खरेखर धर्म
नथी, पण धर्मनुं आंगणुं छे. अने नवतत्त्वना विकल्परहित थईने एक अभेद आत्माने श्रद्धामां लेवो ते
निश्चयश्रद्धा छे, ते ज प्रथम धर्म छे.
समजवानी