Atmadharma magazine - Ank 086
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर: २४७७ : २७ :
आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्त्तव्य–३
निश्चयसम्यग्दर्शननो मार्ग
[वीर सं. २४७६, श्रावण वद १४ सोमवार]
आत्मा देहथी जुदो पदार्थ छे. जेने आत्मानुं कल्याण करवुं होय–सुखी थवुं होय–धर्म करवो होय
अथवा तो सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं होय तेणे शुं करवुं ते वात चाले छे.
पहेलांं तो जीवादि नवतत्त्वोने जुदां जुदां जेम छे तेम जाणवा जोईए. ते नवतत्त्वना विचाररूप
शुभभाव अखंड चैतन्यवस्तुमां जवामां निमित्त थाय छे. जेम बारणा द्वारा घरनी अंदर अवाय पण बारणुं
साथे उपाडीने अंदर न अवाय; तेम अंतरना चैतन्य–घरमां आववा माटे नवतत्त्वनी श्रद्धा करवी ते बारणुं छे
–निमित्त छे, पण ते नवतत्त्वना विचारना शुभरागथी कांई अभेद स्वभावमां पहोंचातुं नथी. तेम ज पहेलांं
नवतत्त्वना ज्ञानरूप आंगणे आव्या वगर पण अभेदमां जवातुं नथी.
अहो, अनंतकाळे आवो मनुष्यदेह मळ्‌यो; तेमां विचार करवो जोईए के मारुं कल्याण केम थाय?
अनंतकाळमां कल्याण न थयुं ने निगोदादि अनंत भवोमां रखडयो; हवे आ अनंतकाळे मोंघो मनुष्यभव
पामीने आत्मानुं कल्याण केम थाय? तेनी आ वात छे.
जेम राजाने मळवा जतां पहेलांं वच्चे द्वारपाळ आवे छे, तेम आ चैतन्यमहाराजानी प्रतीत अने
अनुभव करवा जतां वच्चे नवतत्त्वनी श्रद्धारूप द्वारपाळ आवे छे, ते नवतत्त्वनुं वर्णन चाले छे, तेमां जीव,
अजीव, पुण्य ने पाप ए चार तत्त्वोनुं वर्णन थई गयुं छे.
सम्यग्दर्शन केम पमाय तेनी आ रीत कहेवाय छे. आ सम्यग्दर्शननो उपाय छे. आत्मा देह वगेरे पर
वस्तुओथी भिन्न चैतन्यवस्तु छे, तेने तेवो मानवो ते सम्यक्श्रद्धानो मार्ग छे. जेम कोई माणस पासे करोड रू.
नी मूडी होय तेने करोड रू. नी मूडीवाळो माने तो तेने साचो मान्यो कहेवाय, पण करोड रूा. नी मूडीवाळाने
हजार रू. नी मूडीवाळो ज माने तो ते मान्यता साची न कहेवाय. करोड रू. नी मूडीनुं ज्ञान कर्या पछी, करोड रू.
नी मूडी पोताने केम थाय ते वात तो जुदी छे. तेम आत्मा अनंत गुणनो स्वामी, सिद्ध भगवान जेवो छे; तेने
तेवा पूरा स्वरूपे पहेलांं विकल्पथी मानवो ते व्यवहारे जीवतत्त्वनी साची मान्यता छे, ते पुण्य परिणाम छे.
चैतन्यतत्त्वनी निर्विकल्प श्रद्धा करवा पहेलांं तेवो विकल्प आवे छे. विकल्पथी पण स्वीकार तो पूरानो ज छे.
आत्माने सिद्धसमान पूरो न माने ने क्षणिक विकारवाळो ज माने तेने तो जीवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा पण नथी.
विकल्पथी मनद्वारा पण परिपूर्ण जीवतत्त्वने जे न जाणे तेने परमार्थश्रद्धा थती नथी. नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा
ते पुण्य छे, ते धर्म नथी. तो पछी बहारनी क्रियामां तो धर्म होय ज शेनो?
जेम माखी बळखो खावा जतां तेनी चीकासमां चोंटी जाय छे, तेम अज्ञानी जीव अनादिथी चैतन्यने
चूकीने ईंद्रियविषयोनी रुचि करीने तेमां ज चोंटी जाय छे. पण कईक निवृत्ति लईने, अरे! हुं कोण छुं? आ
संसारभ्रमण केम टळे?–ए प्रकारे जीवादि तत्त्वोनो विचार करतो नथी. हजी नवतत्त्वना विचारमां पण रागना
प्रकार पडे छे; केम के नवे तत्त्वनो विकल्प एक साथे होतो नथी पण क्रमे क्रमे होय छे, तेथी तेमां रागमिश्रित
विचार छे. पहेलां रागमिश्रित विचारथी नवतत्त्वनो निर्णय करवो ते व्यवहारश्रद्धा छे; ते हजी खरेखर धर्म
नथी, पण धर्मनुं आंगणुं छे. अने नवतत्त्वना विकल्परहित थईने एक अभेद आत्माने श्रद्धामां लेवो ते
निश्चयश्रद्धा छे, ते ज प्रथम धर्म छे.
जेम चोपडानुं नामुं तपासे तो मूडीनी खबर पडे, तेम सत्समागमे शास्त्रनो अभ्यास, श्रवण–मनन करे
तो जीव शुं–अजीव शुं–एनी खबर पडे.
कोई कहे के–‘अमारे जीवतां तो घरबार, वेपारधंधो वगेरे घणां काम होय एटले जीवतां बधाथी जुदा
आत्मानी श्रद्धा न थाय, पण मरवा टाणे कंईक करशुं!’ तो एम कहेनारने तत्त्वनी रुचि नथी, आत्मा
समजवानी