परज्ञेयने जाणवानुं काम सम्यग्ज्ञान करे छे. यथार्थ ज्ञानमां ज्ञेयोनो केवो स्वभाव जणाय छे तेनुं आ वर्णन छे.
ते प्रवाहक्रमना नानामां नाना एकेक अंशो पण उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वरूप स्वभाववाळा छे. अनादिअनंतकाळना
दरेक समयमां ते ते समयनो परिणाम स्वयं सत् छे. आवा सत् परिणामोने ज्ञान जाणे पण तेमां कांई फेरफार
करी शके नहि. जेम अग्नि के बरफ वगेरे पदार्थोने आंख देखे छे पण तेमां कांई फेरफार करती नथी, तेम ज्ञाननी
पर्याय पण ज्ञेयोने सत्पणे जेम छे तेम जाणे ज छे, तेमां कांई फेरफार करती नथी. स्व अवसरमां ज्यारे जे
परिणाम छे ते वखते ते ज परिणाम होय–बीजा परिणाम न होय;–एम ज्यां ज्ञानमां नक्की कर्युं त्यां कोई पण
ज्ञेयने आडुंअवळुं करवानी मिथ्याबुद्धिपूर्वकना रागद्वेष थता नथी.
द्रव्य पलटीने बीजारूपे थई जतुं नथी तेम तेनो एकेक समयनो अंश–परिणाम पण पलटीने बीजारूपे थतो
नथी. ‘मारे जीव नथी रहेवुं पण अजीव थई जवुं छे’ एम जीवने फेरवीने कोई अजीव करवा मागे तो शुं ते
फरी शके? न ज फरे. जीव पलटीने कदी अजीवपणे न थाय, ने अजीव पलटीने कदी जीवपणे न थाय. जेम
त्रिकाळी सत् नथी फरतुं तेम तेनुं वर्तमान सत् पण नथी फरतुं. जेम त्रिकाळी द्रव्य फरतुं नथी तेम द्रव्यनी एकेक
समयनी अनादिअनंत अवस्थाओ पण जे समये जेम छे तेमां फेरफार के आघुंपाछुं थई शके नहि. त्रिकाळी
प्रवाहना वर्तमान अंशो पोतपोताना काळे सत् छे. बस, परमां के स्वमां क्यांय फेरफारनी बुद्धि न रही एटले
ज्ञान जाणनार ज रही गयुं. पर्यायबुद्धिमां अटकवानुं नरह्युं. आम ज्ञान जाणवानुं काम करे; एवा
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे. हजी केवळज्ञान थया पहेलांं ए जीव केवळी भगवाननो
लघुनंदन थई गयो. श्रद्धा अपेक्षाए तो ते साधक पण सर्वनो ज्ञायक थई गयो छे.
पोतामां ठर्युं. –आमां ज ज्ञाननो परम पुरुषार्थ छे, आमां ज मोक्षमार्गनो ने केवळज्ञाननो पुरुषार्थ आवी जाय
छे. परमां कर्ताबुद्धिवाळाने ज्ञानस्वभावनी प्रतीत नथी बेसती, ने तेने ज्ञानना स्वभावनो ज्ञायकपणानो
पुरुषार्थ पण नथी जणातो.
स्वभावनी प्रतीत ते ज सम्यग्दर्शन छे. परमां हुं फेरफार करुं के पर मारामां फेरफार करे–एम मिथ्याद्रष्टिनो
भाव छे, तेने ज्ञान अने ज्ञेयना स्वभावनी प्रतीत नथी. जगतना जड के चेतन बधां य द्रव्यो पोताना प्रवाहमां
वर्ते छे, तेमां जे जे अंश वर्तमान वर्ते छे तेने कोई आघोपाछो फेरवी शके नहि. हुं ध्यान राखीने शरीरने सरखुं
राखी दउं एम कोई माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. शरीरना एकेक परमाणुओ तेना पोताना प्रवाहक्रममां वर्ती रह्या
छे, तेना क्रमने कोई फेरवी शके नहि. क्यांय पण फेरफार करे एवुं आत्माना कोई गुणनुं कार्य नथी, पण आत्मा
स्वने जाणतां परने जाणे एवुं तेना ज्ञान–गुणनुं स्व–परप्रकाशक कार्य छे. एनी प्रतीत ए ज मुक्तिनुं कारण छे.
अपेक्षाए व्ययरूप छे, तेम ज परस्पर संबंधवाळा सळंग प्रवाह अपेक्षाए तेओ धु्रव छे. द्रव्यना बधा य
परिणामो पोतपोताना काळमां सत् छे. ते परिणामो