Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ४८: : आत्मधर्म: ८७
अनंत प्रवाहनी एकता, ने प्रवाहक्रमना सूक्ष्म अंशो ते परिणामो–एम बताव्युं.
(२) पछी प्रवाहक्रममां वर्तता परिणामोनो परस्पर व्यतिरेक सिद्ध कर्यो.
(३) पछी समुच्ययपणे आखा य द्रव्यना त्रिकाळी परिणामोने उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यात्मक सिद्ध कर्या. (तेना
द्रष्टांतमां, द्रव्यना बधा य प्रदेशोने क्षेत्रअपेक्षाए उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यात्मक सिद्ध कर्या.)
(४) पछी एक ज परिणाममां उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यात्मकपणुं बताव्युं. (तेना द्रष्टांतमां, एकेक प्रदेशमां क्षेत्र
अपेक्षाए उत्पाद–व्यय–धु्रव बताव्यां.)
(प) ए प्रमाणे परिणामना उत्पाद–व्यय–धु्रव सिद्ध कर्या पछी छेल्ले–उत्पाद–व्यय–धु्रवात्मक परिणामना
प्रवाहमां द्रव्य सदाय वर्ती रह्युं छे एटले द्रव्य उत्पाद–व्यय–धु्रव सहित होवाथी सत् छे–एम आखुं द्रव्य
लईने उत्पाद–व्यय–धु्रव सिद्ध कर्यां छे.
उपर जे पांच बोल कह्या, तेमांथी अत्यारे आ त्रीजा बोलनुं. विवेचन चाले छे. पोतपोताना अवसरमां
त्रिकाळिक बधा परिणामोनां उत्पाद–व्यय–धु्रवनी एक साथे वात करीने अहीं एकलो ज्ञायकभाव ज बताव्यो छे;
अहीं आखो य ज्ञायकभाव अने सामे आखुं य ज्ञेय एक साथे लई लीधुं.
अहीं परिणामोमां उत्पाद–व्यय–धु्रव समजाववा माटे प्रदेशोनो दाखलो लीधो छे. अहीं कोई एम कहे के–
बीजो कोई सहेलो दाखलो न आपतां आचार्यदेवे प्रदेशोनो आवो सूक्ष्म दाखलो केम आप्यो?–तो कहे छे के,
भाई! तुं धीरो था. आचार्यदेवे प्रदेशोनो दाखलो योग्य ज आप्यो छे. केम के द्रव्यनुं आखुं क्षेत्र एक साथे अक्रमे
पथरायेलुं पड्युं छे, ने परिणामोनी व्यक्तता तो क्रमेक्रमे थाय छे, माटे प्रदेशोनो दाखलो झट समजाय तेवो छे,
ने परिणामोनी वात तेनाथी सूक्ष्म छे. अहीं परिणामोना उत्पाद–व्यय–धु्रवनी सूक्ष्म अने गंभीर वात
समजाववी छे तेथी दाखलो पण प्रदेशोनो सूक्ष्म ज लेवो पडे. जो बाह्य स्थूळ दाखलो आपवा जाय तो सिद्धांतनी
जे सूक्ष्मता अने गंभीरता छे ते ख्यालमां न आवे; माटे एवा सूक्ष्म द्रष्टांतनी ज अहीं जरूर छे.
कारतक वद ७ शुक्रवार
आत्मा ज्ञानस्वभाव छे. ते ज्ञाननो स्वभाव ‘जाणवुं’ ते छे एटले के ज्ञान जाणवानुं ज काम करे छे.
आत्मामां ने परमां क्रमेक्रमे जे अवस्था थाय ते ज्ञेय छे, तेने जेम होय तेम मात्र जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे
पण तेमां कांई फेरफार करे एवो ज्ञाननो स्वभाव नथी. ज्ञान शुं करे? ज्ञान तो जाणे. जाणवा सिवाय बीजुं
कांई ज्ञाननुं कार्य नथी. रागादि परिणाम थया तेने पण जाणवानुं ज्ञाननुं कार्य छे, पण ते रागने पोतानो
त्रिकाळी स्वभाव माने एवुं ज्ञाननुं कार्य नथी, तेम ज ते रागपरिणामने फेरवीने आघोपाछो करे एवुं पण
ज्ञाननुं कार्य नथी. बस! स्व के पर, विकारी के अविकारी, बधाय ज्ञेयोने जाणवानुं ज ज्ञाननुं कार्य छे, रागादि
परिणाम जेटलो ज हुं–एम ज्ञान माने नहि.–आवा ज्ञान–स्वभावनी प्रतीत ते ज वीतरागतानुं मूळ छे.
आ जगतमां अनंता जीव, अनंता पुद्गलो, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने असंख्यात
काळाणु एवा छ प्रकारना पदार्थो छे. तेमांथी एकेक आत्मानो ज्ञानगुण छए पदार्थोनी क्रमसर थती बधी
अवस्थाओने तथा द्रव्य–गुणने जाणनारो छे; आवो दरेक आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. आवा ज्ञानस्वभावने जे
जाणे ते जीव रागपरिणामने जाणे खरो पण ते रागने पोतानुं मूळ स्वरूप न माने,–रागने धर्म न माने, तेम ज
रागपरिणामने आघोपाछो करवानो पण स्वभाव न माने. तेना अवसरमां ते रागपरिणाम पण सत् छे, ने
तेने जाणनारुं ज्ञान पण सत् छे; द्रव्यना त्रिकाळी प्रवाहक्रममां ते रागपरिणाम पण सत्पणे आवी जाय छे,
तेथी ते पण ज्ञाननुं ज्ञेय छे. राग हतो माटे रागनुं ज्ञान थयुं–एम नथी पण ज्ञाननो ज स्वभाव जाणवानो छे.
आखा स्वज्ञेयने जाणनारुं ज्ञान ते रागने पण स्वज्ञेयना अंश तरीके जाणे छे; त्रिकाळी अंशीना ज्ञान सहित
अंशनुं पण ज्ञान करे छे. जो रागने स्वज्ञेयना अंश तरीके सर्वथा जाणे ज नहि तो ते ज्ञानमां आखुंय स्वज्ञेय
पूरुं थतुं नथी एटले ते ज्ञान साचुं थतुं नथी; तेम ज जो ते रागरूप अंशने ज आखुं स्वज्ञेय मानी ल्ये ने
त्रिकाळी द्रव्य–गुणने स्वज्ञेय न बनावे तो ते ज्ञान पण मिथ्या छे. द्रव्य–गुण ने