Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: पोष: २४७७ : ४७:
कारतक वद ६ गुरुवार
द्रव्यना बधा परिणामो पोतपोताना अवसरमां स्व–रूपथी उत्पन्न छे, पूर्वरूपथी विनष्ट छे, ने एक
सळंग प्रवाहनी अपेक्षाए तेओ उत्पत्ति–विनाशरहित धु्रव छे.
अहीं परिणामोनो स्व अवसर कहीने आचार्यदेवे अद्भुत वात करी छे. जेटला एक द्रव्यना परिणामो
तेटला ज त्रणकाळना समयो, ने जेटला त्रणकाळना समयो तेटला ज एक द्रव्यनां परिणामो. बस! आटलुं
नक्की करे तो पोताना ज्ञायकपणानी प्रतीति थई जाय. द्रव्यना दरेक परिणामने पोतपोतानो अवसर भिन्न छे.
सामे त्रणकाळना परिणामो एक साथे ज्ञेय छे ने अहीं आत्मा तेनो जाणनार छे. आवा ज्ञेयज्ञायकपणामां वच्चे
राग न रह्यो, एकली वीतरागता ज आवी. पहेलां आवी श्रद्धा करतां वीतरागी श्रद्धा थाय छे ने पछी
ज्ञानस्वभावमां स्थिरता थतां वीतरागी चारित्र थाय छे.
अहो! आ द्रव्यना परिणामोनो स्व अवसर कहो के क्रमबद्ध परिणाम कहो, तेनी प्रतीत करतां परिणामी
एवा त्रिकाळी द्रव्य उपर ज द्रष्टि जाय छे. परिणामोना स्व अवसरनी आ वात स्वीकारतां तो, ‘निमित्त आवे
तो परिणाम थाय, के निमित्तने लीधे अहीं परिणाममां फेरफार थाय, कर्मना उदयथी विकार थाय, के व्यवहार
करतां करतां परमार्थ प्रगटे, अथवा तो पर्यायना आधारे पर्याय थाय’–एवी कोई वात ऊभी रहेती नथी. बधा
परिणामो पोतपोताना अवसरे द्रव्यमांथी प्रगटे छे. ज्यां द्रव्यना दरेक परिणामो पोतपोताना अवसरे ‘सत्’ छे
त्यां वळी निमित्त सामे जोवानुं ज क्यां रह्युं?–अने ‘हुं परमां फेरफार करुं के परथी मारामां फेरफार थाय’ –ए
वात पण क्यां रही? –मात्र ज्ञाता अने ज्ञेयपणुं ज रहे छे, ए ज मोक्षनो मार्ग छे, ए ज सम्यक् पुरुषार्थ छे.
त्रणकाळना परिणामो छे ते द्रव्यना प्रवाहरूपी सांकळना अंकोडा छे. जेम सांकळना अंकोडा आघापाछा
न थाय, जेम छे तेम ज रहे छे तेम द्रव्यना अनादिअनंत परिणामो पोताना अवसरथी आघापाछा न थाय,
दरेक परिणाम पोतपोताना अवसरमां सत् छे. आमां त्रणकाळना परिणामोनी एक सळंग सांकळ लईने
उत्पाद–व्यय–धु्रवनी वात करी छे. द्रव्य पोताना परिणामस्वभावमां रहेलुं छे. अत्यारे परिणामनो स्वभाव शुं
छे ते वात चाले छे. पहेलांं परिणामोनो उत्पाद–व्यय–धु्रव स्वभाव साबित करे छे; अने पछी, द्रव्य ते
परिणाम–स्वभावमां रहेलुं होवाथी ते द्रव्य पण उत्पाद–व्यय–धु्रववाळुं सत् छे–एम छेल्ले साबित करशे. ज्ञाता,
वस्तुना आवा स्वभावने जाणे ने ज्ञेयोमां फेरफार करवानुं न माने ते सम्यक्त्व छे, ने पदार्थोना स्वभावनो
ज्ञाता रहे तेमां वीतरागता छे.
आ प्रवचनसारमां पहेलांं तो ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापनमां आत्मानो ज्ञानस्वभाव नक्की कर्यो छे, ने पछी बीजा
अधिकारमां ज्ञेयतत्त्वोनुं वर्णन कर्युं छे. आत्मानो स्वभाव ज्ञान ज छे, ने जीव–अजीवमां पोतपोताना अवसरे
थता त्रणकाळना परिणामो ते ज्ञेयो छे,–आवी प्रतीति करतां क्यांय फेरफार के आघुंपाछुं करवानी बुद्धि न रही,–
राग–द्वेषनी बुद्धि न रही, एटले ज्ञान स्वमां ठर्युं. आ ज वीतरागता अने केवळज्ञाननुं कारण छे.
पदार्थोनो जेवो सत् स्वभाव होय तेवो माने तो सत् मान्यता कहेवाय, पण पदार्थोना सत् स्वभावथी
बीजी रीते माने तो ते मान्यता मिथ्या छे. आ ‘सत्’नी श्रद्धा करावे छे. ‘सत्’ ते द्रव्यनुं लक्षण छे, अने ते सत्
उत्पाद्–व्यय–धु्रववाळुं छे. आवा द्रव्यना सत् स्वभावनी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे. ए ज खरुं
तत्त्वार्थ
श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं छे. अत्यारे वात तो परिणामोनी चाले छे, पण परिणामना निर्णयमां परिणामी द्रव्यनो
निर्णय पण आवी ज जाय छे. परिणाम तो क्षणिक छे, पण ते परिणाम कोना?–के त्रिकाळी द्रव्यना. परिणाम
अद्धरथी थता नथी पण परिणामीना परिणाम छे; एटले परिणामनो निर्णय करतां परिणामी द्रव्यनो ज निर्णय
थाय छे, ने एकला परिणाम उपरथी रुचि खसीने त्रिकाळी द्रव्य–स्वभाव तरफ रुचि अने ज्ञान वळे छे,–ए ज
सम्यग्दर्शन अने वीतरागतानुं मूळ छे.
आ ९९ मी गाथा घणी ऊंची छे, आमां वस्तुस्थितिनुं स्वरूप अलौकिक रीते वर्णव्युं छे. बधांय द्रव्यो
‘सत्’ छे, उत्पाद–व्यय–धु्रवसहित परिणाम ते तेनो स्वभाव छे, ने एवा स्वभावमां सदाय वर्ततुं होवाथी द्रव्य
पण उत्पाद–व्यय–धु्रववाळुं छे–एम आ गाथामां सिद्ध करवुं छे.
(१) टीकामां, पहेलांं तो द्रव्यमां समग्रपणा वडे अनादि–