Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ४६: : आत्मधर्म: ८७
क्यां रह्युं? अहो! आवा स्वभावनी हा तो पाड. एनी हा मां वीतरागी श्रद्धा छे ने तेमां ज वीतरागता अने
केवळज्ञाननां बीजडां छे.
* * *
बे वात थई छे: (१) प्रथम तो, क्षेत्रना द्रष्टांते द्रव्यना अनादिअनंत प्रवाहनी एक समग्रवृत्ति बतावी,
अने ते प्रवाहक्रमना सूक्ष्म अंशो ते परिणामो छे–एम बताव्युं.–ए रीते द्रव्यने सत् साबित कर्युं. तेमां, सळंग
हयाती अपेक्षाए एकपणुं ने परिणामोनी अपेक्षाए अनेकपणुं–एम सत्मां एक–अनेकपणुं पण साबित कर्युं.
(२) त्यार पछी परिणामोनो परस्पर व्यतिरेक कर्यो.
ए प्रमाणे बे वात सिद्ध करी, तेनो विस्तार करीने हवे तेमांथी उत्पाद–व्यय–धु्रव काढे छे.
“जेम ते प्रदेशो पोताना स्थानमां स्व–रूपथी उत्पन्न ने पूर्वरूपथी विनष्ट होवाथी तथा सर्वत्र (बधेय)
परस्पर अनुस्यूतिथी रचायेला एक वास्तुपणा वडे अनुत्पन्न–अविनष्ट होवाथी उत्पत्ति–संहार–ध्रौव्यात्मक छे,
तेम ते परिणामो पोताना अवसरमां स्व–रूपथी उत्पन्न ने पूर्वरूपथी विनष्ट होवाथी तथा सर्वत्र परस्पर
अनुस्यूतिथी रचायेला एकप्रवाहपणा वडे अनुत्पन्न–अविनष्ट होवाथी उत्पत्ति–संहार–ध्रौव्यात्मक छे.”
(पृष्ठ : १६४–प)
आमां प्रदेशोनी वात द्रष्टांतरूप छे ने परिणामोनी वात सिद्धांतरूप छे.
प्रश्न:– आ शुं विषय चाले छे?
उत्तर:– आ वस्तुना स्वभावनी वात चाले छे. उत्पाद–व्यय–ध्रुवरूप परिणाम ते पदार्थोनो स्वभाव छे,
अने ते स्वभावमां सदाय रहेलुं द्रव्य सत् छे–ए वात अहीं साबित करवी छे. तेमां प्रथम आटली वात तो सिद्ध
करी गया के–द्रव्यनी वृत्ति अनादिअनंत अखंडपणे एक होवा छतां, तेना प्रवाहक्रमनो अंश ते परिणाम छे. ते
ते परिणामो एकबीजामां प्रवर्तता नथी पण तेमनो एकबीजामां अभाव छे. तेमांथी हवे विस्तार करीने उत्पाद–
व्यय–धु्रव काढे छे. तेमां पण पहेलांं क्षेत्रनुं द्रष्टांत आपे छे.
आखा द्रव्यना एक क्षेत्रने ल्यो तो तेना प्रदेशो उत्पत्ति–विनाशरहित छे, अने ते प्रदेशोनो परस्पर व्यतिरेक
होवाथी, ते प्रदेशो पोतपोताना स्व–क्षेत्रमां पोतापणे सत् छे ने पूर्वना प्रदेशपणे ते असत् छे,–एटले के ते प्रदेशो
पोतापणे उत्पादरूप छे ने पूर्वना प्रदेशनी अपेक्षाए व्ययरूप छे, ए रीते बधाय प्रदेशो उत्पादव्ययरूप छे ने सर्व
प्रदेशोनो विस्तार साथे लेतां द्रव्यना प्रदेशो धु्रवरूप छे. ए रीते ते बधाय प्रदेशो एक समयमां उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप
छे. (अहीं प्रदेशोनां जे उत्पाद–व्यय–धु्रव कह्या छे ते क्षेत्र अपेक्षाए समजवां.) तेना दाखले समय समयना
परिणामोमां पण उत्पाद–व्यय–धु्रवपणुं छे. अनादिअनंत एक प्रवाहनी अपेक्षाए परिणामो उत्पत्ति–विनाशरहित
धु्रव छे, ने ते परिणामो पोतपोताना स्वकाळमां उत्पादरूप छे तथा पूर्वपरिणाम अपेक्षाए व्ययरूप छे. ए रीते
बधाय परिणामो उत्पाद–व्यय–ध्रुवरूप छे. ने एवा उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप परिणामो ते वस्तुनो स्वभाव छे.
अहीं पहेलांं समुच्चय क्षेत्रनी ने समुच्चय परिणामोनी भेगी वात लईने उत्पाद–व्यय–धु्रव सिद्ध कर्यां
छे. एक परिणाम जुदो पाडीने तेनी वात पछी लेशे. आ वात एकला आत्मानी नथी पण बधांय द्रव्योना
स्वभावनी छे. पण अहीं आत्मानी मुख्यताथी वात करवामां आवे छे.
जेम आत्माना असंख्य प्रदेशोमां एक समयमां क्षेत्र अपेक्षाए उत्पाद–व्यय–धु्रव लागु पडे छे तेम आत्माना
प्रवाहक्रममां वर्तनारा बधाय परिणामो पोत–पोताना अवसरमां स्व–रूपथी उत्पन्न छे, पूर्वरूपथी विनष्ट छे ने
अखंड धारावाही प्रवाह तरीके तेओ उत्पन्न के विनष्ट नथी, एटले ते परिणामो उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप छे.
प्रदेशोनो दाखलो छे तेमां क्षेत्रअपेक्षाए उत्पाद–व्यय–धु्रव छे ने सिद्धांतमां परिणाम अपेक्षाए (प्रवाह
अपेक्षाए, काळ अपेक्षाए) उत्पाद–व्यय–धु्रव छे.
जुओ तो खरा! क्रमबद्ध पोताना अवसरमां बधा परिणामोना उत्पाद–व्यय–धु्रव कहीने आखा त्रिकाळी
द्रव्यने ज्ञेय तरीके सामे राखी दीधुं छे. सर्वज्ञनी अने ज्ञानस्वभावनी प्रतीत वगर आ वात कोई रीते अंदर
बेसे तेवी नथी. आनी प्रतीतमां सम्यग्दर्शन छे, ने चोसठ पोरी पीपर घूंटाती होय तेम, आना घूंटणमां एकली
वीतरागता ज घूंटाय छे. अहो! अद्भुत वात मूकी छे.