हतुं, तेनामां स्व–परप्रकाशक ज्ञानसामर्थ्य न हतुं. ने ज्ञाननी वर्तमान दशामां अंतरनी आखी वस्तुने ज्ञेय
बनावीने ते तरफ वळी जतां ते ज्ञान सम्यक् थयुं, ने तेनामां स्व–परप्रकाशक ताकात खीली गई.
ज्ञेयपणे स्वीकारे छे. आम आखा स्वज्ञेयने (–द्रव्यगुणने तथा विकारी–अविकारी पर्यायोने) कबूलतां रुचि तो
द्रव्य–गुण तरफ वळीने सम्यक् थई गई, ने ज्ञानमां द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेनुं ज्ञान साचुं थयुं.–आवुं आ
ज्ञेयअधिकारनुं वर्णन छे.
साधकने वर्ते छे, ते रागपरिणामने स्वज्ञेय तरीके न जाणे तो रागपरिणाममां वर्तनारा द्रव्यने पण न मान्युं.
व्यय–धु्रवरूप परिणामस्वभावने अतिक्रमतुं नथी. अहीं ‘स्वभाव’ कहेतां शुद्ध परिणाम ज न समजवा पण
विकारी के अविकारी बधाय परिणामो ते द्रव्यनो स्वभाव छे, ने ते स्वज्ञेयमां आवी जाय छे. अने जे आवुं
जाणे तेने शुद्ध परिणामनी उत्पत्ति थवा मांडे छे. स्वज्ञेयमां परज्ञेय नहि ने परज्ञेयमां स्वज्ञेय नहि–आम जाणवुं
तेमां ज वीतरागी श्रद्धा आवी जाय छे. केम के मारुं स्वज्ञेय परज्ञेयोथी जुदुं छे एम नक्की करतां कोई पण
परज्ञेयना अवलंबननो अभिप्राय न रह्यो एटले स्वद्रव्यना अवलंबने सम्यक्श्रद्धा थई. आखुं द्रव्य ते
परिणामी ने तेनो एक अंश ते परिणाम; तेमां आखा परिणामीनी अंर्तद्रष्टि वगर परिणामनुं साचुं ज्ञान
थाय नहीं. परिणामोनी परंपराने द्रव्य छोडतुं नथी पण ते परंपरामां ज वर्ते छे,–एटले लक्षनुं जोर क्यां गयुं?–
द्रव्य उपर. ए रीते आमां य द्रव्यद्रष्टि ज आवी जाय छे.
थयुं.
होवापणुं परिणामस्वभावथी जुदुं नथी. वस्तु ‘छे’ एम कहेतां ज तेमां उत्पाद–व्यय–धु्रव आवी जाय छे.
उत्पाद–व्यय–धु्रव वगर ‘वस्तु छे’ एम सिद्ध न थाय. परिणाम ‘छे’ एम कहेतां ते परिणाम पण उत्पाद–व्यय–
धु्रववाळो छे. ‘होवापणुं (–सत्)’ उत्पाद–व्यय–धु्रव वगर होतुं नथी. माटे सत्त्वने त्रिलक्षण अनुमोदवुं.
‘आम हशे के तेम’ एम शंकामां झूलतुं होय त्यां अंतरमां घोलन क्यांथी चाले? निःशंक ज्ञान वगरनुं घोलन
पण खोटुं होय एटले के मिथ्याज्ञान ने मिथ्याश्रद्धा होय. पहेलांं शुं वस्तुस्थिति छे ते बराबर ख्यालमां लेवी
जोईए. वस्तुने बराबर ख्यालमां लीधा विना घोलन कोनुं करशे?