Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ५६: : आत्मधर्म: ८७
त्रिकाळी तत्त्वनी रुचि तरफ वळीने आखुं स्वज्ञेय प्रतीतमां आव्युं त्यारे परज्ञेयने जाणवानी ज्ञाननी
यथार्थ ताकात खीली. ज्ञाननी वर्तमान दशा रागसन्मुख अटकीने तेने आखुं स्वज्ञेय मानती ते ज्ञान मिथ्या
हतुं, तेनामां स्व–परप्रकाशक ज्ञानसामर्थ्य न हतुं. ने ज्ञाननी वर्तमान दशामां अंतरनी आखी वस्तुने ज्ञेय
बनावीने ते तरफ वळी जतां ते ज्ञान सम्यक् थयुं, ने तेनामां स्व–परप्रकाशक ताकात खीली गई.
परिणामना प्रवाहक्रममां वर्तनारुं द्रव्य छे–एम नक्की कर्युं त्यां रुचिनुं जोर ते द्रव्य तरफ ढळतां रुचि
सम्यक् थई गई. ते पर्यायमां रागनो अंश वर्ते छे ते पण ज्ञानना ख्यालथी बहार नथी, ज्ञान तेने पण स्व–
ज्ञेयपणे स्वीकारे छे. आम आखा स्वज्ञेयने (–द्रव्यगुणने तथा विकारी–अविकारी पर्यायोने) कबूलतां रुचि तो
द्रव्य–गुण तरफ वळीने सम्यक् थई गई, ने ज्ञानमां द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेनुं ज्ञान साचुं थयुं.–आवुं आ
ज्ञेयअधिकारनुं वर्णन छे.
ज्ञेयना त्रणे अंशने (–द्रव्य–गुण–पर्यायने) कबूले ते ज्ञान सम्यक् छे, एक अंशने ज (रागने ज) कबूले
तो ते ज्ञान मिथ्या छे, अने सर्वथा राग वगरनुं कबूले तो ते ज्ञान पण मिथ्या छे; केम के रागपरिणाम पण
साधकने वर्ते छे, ते रागपरिणामने स्वज्ञेय तरीके न जाणे तो रागपरिणाममां वर्तनारा द्रव्यने पण न मान्युं.
रागपरिणाम पण द्रव्यना त्रणकाळना परिणामनी पद्धतिमां आवी जाय छे, रागपरिणाम कांई द्रव्यना
परिणामनी परंपराथी जुदो नथी. त्रणे काळना परिणामोनी परंपरामां वर्तीने ज द्रव्य टकी रह्युं छे.
निगोद के सिद्ध–कोई पण परिणाम उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप छे, ने ते परिणाममां द्रव्य वर्ती रह्युं छे.
परिणामनी जे ढब छे–जे क्रम छे–जे परंपरा छे–जे स्वभाव छे–तेमां द्रव्य अवस्थित छे. ते द्रव्य पोताना उत्पाद–
व्यय–धु्रवरूप परिणामस्वभावने अतिक्रमतुं नथी. अहीं ‘स्वभाव’ कहेतां शुद्ध परिणाम ज न समजवा पण
विकारी के अविकारी बधाय परिणामो ते द्रव्यनो स्वभाव छे, ने ते स्वज्ञेयमां आवी जाय छे. अने जे आवुं
जाणे तेने शुद्ध परिणामनी उत्पत्ति थवा मांडे छे. स्वज्ञेयमां परज्ञेय नहि ने परज्ञेयमां स्वज्ञेय नहि–आम जाणवुं
तेमां ज वीतरागी श्रद्धा आवी जाय छे. केम के मारुं स्वज्ञेय परज्ञेयोथी जुदुं छे एम नक्की करतां कोई पण
परज्ञेयना अवलंबननो अभिप्राय न रह्यो एटले स्वद्रव्यना अवलंबने सम्यक्श्रद्धा थई. आखुं द्रव्य ते
परिणामी ने तेनो एक अंश ते परिणाम; तेमां आखा परिणामीनी अंर्तद्रष्टि वगर परिणामनुं साचुं ज्ञान
थाय नहीं. परिणामोनी परंपराने द्रव्य छोडतुं नथी पण ते परंपरामां ज वर्ते छे,–एटले लक्षनुं जोर क्यां गयुं?–
द्रव्य उपर. ए रीते आमां य द्रव्यद्रष्टि ज आवी जाय छे.
द्रव्य तो घणी शक्तिनो त्रिकाळी पिंड छे, ने परिणाम तो एक समयपूरतो अंश छे, –एम जाण्युं त्यां
श्रद्धानुं जोर घणी शक्तिना पिंड तरफ वळी गयुं एटले द्रव्यनी प्रतीत थई, अने द्रव्य–पर्याय बंनेनुं यथार्थ ज्ञान
थयुं.
दरेक वस्तु पोताना परिणामस्वभावमां वर्ती रही छे, ते परिणामना त्रण लक्षण (–उत्पाद–व्यय–
धु्रवात्मक) छे, तेथी ते परिणाममां वर्तती वस्तुमां पण ए त्रण लक्षण आवी ज जाय छे, केम के वस्तुनुं
होवापणुं परिणामस्वभावथी जुदुं नथी. वस्तु ‘छे’ एम कहेतां ज तेमां उत्पाद–व्यय–धु्रव आवी जाय छे.
उत्पाद–व्यय–धु्रव वगर ‘वस्तु छे’ एम सिद्ध न थाय. परिणाम ‘छे’ एम कहेतां ते परिणाम पण उत्पाद–व्यय–
धु्रववाळो छे. ‘होवापणुं (–सत्)’ उत्पाद–व्यय–धु्रव वगर होतुं नथी. माटे सत्त्वने त्रिलक्षण अनुमोदवुं.
पहेलांं यथार्थ श्रवण करीने वस्तुने बराबर जाणे के ‘आ आम ज छे’ तो ज्ञान निःशंक थाय, ने ज्ञान
निःशंक थाय तो ज अंतरमां तेनुं घोलन करीने निर्विकल्प अनुभव करे. पण ज्यां ज्ञान ज खोटुं होय अने
‘आम हशे के तेम’ एम शंकामां झूलतुं होय त्यां अंतरमां घोलन क्यांथी चाले? निःशंक ज्ञान वगरनुं घोलन
पण खोटुं होय एटले के मिथ्याज्ञान ने मिथ्याश्रद्धा होय. पहेलांं शुं वस्तुस्थिति छे ते बराबर ख्यालमां लेवी
जोईए. वस्तुने बराबर ख्यालमां लीधा विना घोलन कोनुं करशे?
परिणामने वस्तु ओळंगती नथी, केम के परिणाम सत् छे. वस्तु जो परिणामने ओळंगे तो तो ‘सत्’ ने
ज ओळंगे, एटले वस्तु ‘छे’ एम साबित न थाय. त्रणेकाळना परिणामना प्रवाहमां वस्तु वर्ते छे.