Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 19 of 31

background image
: ५८: : आत्मधर्म: ८७
द्रव्यनुं सत्पणुं ज सिद्ध थतुं नथी, केम के ते ते समयना परिणाममां द्रव्य वर्ती रह्युं छे, माटे पोताना क्रमबद्ध–
परिणामोना प्रवाहमां वर्तमान वर्ती रहेला द्रव्यने उत्पाद–व्यय–धु्रववाळुं ज आनंदथी मानवुं.
स्वभावमां अवस्थित रहेलुं द्रव्य सत् छे–ए वात सिद्ध करवा माटे पहेलांं तो उत्पाद–व्यय–धु्रवयुक्त
परिणाम कहीने स्वभाव सिद्ध कर्यो, ने ते स्वभावमां द्रव्य नित्य–अवस्थित छे–एम हवे सिद्ध कर्युं.
पहेलांं परिणामोना उत्पाद–व्यय–धु्रव सिद्ध करवा माटे प्रदेशोनो दाखलो हतो, ते परिणामनी वात पूरी
थई. ने हवे द्रव्यनां उत्पाद–व्यय–धु्रव मोतीना हारनो दाखलो आपीने समजावशे.
व्याख्यान पछीनी र्चामांथी
पहेलांं ‘वर्तमान’ ने सिद्ध कर्युं ने पछी ते ‘वर्तमानमां वर्तनारो’ सिद्ध कर्यो. परिणाम कोना? –के
परिणामीना. उत्पाद–व्यय–धु्रवयुक्त वर्तमान परिणाम अने ते परिणाममां वर्तनारुं उत्पाद–व्यय–धु्रवयुक्त
द्रव्य–ते आखुं स्वज्ञेय छे. एनी प्रतीत ते आखा स्वज्ञेयनी प्रतीत छे. आखा स्वज्ञेयनी प्रतीत करतां रुचिनुं
जोर वर्तमान अंश उपरथी खसीने त्रिकाळी द्रव्य तरफ वळे छे, ए ज सम्यग्दर्शन छे.
परिणामनां उत्पाद–व्यय–धु्रव नक्की करतां पण द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे, केम के द्रव्य पोताना
परिणामस्वभावने छोडतुं नथी.
परिणामस्वभावमां कोण वर्ते छे? –द्रव्य.
परिणामने कोण छोडतुं नथी?
–द्रव्य.
–एटले एम नक्की करतां द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे, ने द्रव्यद्रष्टि थतां ज परिणाममां सम्यक्त्वनो उत्पाद,
ने मिथ्यात्वनो व्यय थई जाय छे. ए रीते द्रव्यनी द्रष्टिमां ज सम्यक्त्वनो पुरुषार्थ आवी जाय छे. ए सिवाय
मिथ्यात्व टाळवा माटे ने सम्यक्त्व प्रगट करवा माटे बीजो कोई जुदो पुरुषार्थ करवानो नथी रहेतो. द्रव्यद्रष्टि ते
ज सम्यग्द्रष्टि छे.
प्रभु श्री वीर वर्द्धमान वैराग्य मंगलदिन
कारतक वद १० सोमवार
[गाथा ९]
जेणे धर्म करवो होय तेणे केवुं वस्तुस्वरूप जाणवुं जोईए, तेनी आ वात छे. धर्म ते आत्मानी पर्याय छे
एटले ते आत्मामां ज थाय. आत्मानो धर्म परमां न थाय तेम ज पर वडे पण न थाय. तेम ज पर्यायनो धर्म
पर्यायमांथी थतो नथी पण द्रव्यमांथी थाय छे; धर्म तो पर्यायमां ज थाय छे पण ते पर्यायवडे (एटले के पर्याय
सामे जोवाथी के पर्यायनो आश्रय करवाथी) धर्म न थाय पण द्रव्यनी सन्मुखताथी पर्यायमां धर्म थाय छे.
परनो तो आत्मामां अभाव छे एटले पर सामे जोवाथी धर्म थतो नथी.
हवे पोतानी अवस्थामां जेने धर्म करवो छे तेने अधर्मने टाळवो छे ने धर्मपणे थईने आत्माने सळंग
टकावी राखवो छे. जुओ, आमां ‘धर्म करवो छे’ एम कहेतां तेमां नवी पर्यायना उत्पादनो स्वीकार आवी जाय
छे, ‘अधर्मने टाळवो छे’ तेमा पूर्व पर्यायना व्ययनो स्वीकार आवी जाय छे, अने ‘आत्माने सळंग टकावी
राखवो छे’ एमां सळंग प्रवाह अपेक्षाए धु्रवनो स्वीकार आवी जाय छे. ए रीते धर्म करवानी भावनामां
वस्तुना उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभावनो स्वीकार आवी जाय छे. वस्तुमां जो उत्पाद–व्यय–धु्रव न होय तो अधर्म
टळीने अर्धनी उत्पत्ति थाय नहि ने आत्मा सळंग टकी शके नहि. अने ते उत्पाद–व्यय–ध्रृव पण जो काळना
नानामां नाना भागमां न थतां होय तो एक समयमां अधर्म टाळीने धर्म थई न शके. माटे धर्म करनारे वस्तुने
समये समये उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभाववाळी जाणवी जोईए.
द्रव्य–गुण कायम छे ने पर्याय क्षणिक छे, ते त्रणेने जाणीने कायमी द्रव्य तरफ वर्तमान पर्यायने वाळ्‌या
विना धर्म थतो नथी. वस्तुमां अवस्था तो नवी नवी थया ज करे छे. जो नवी अवस्था न थाय तो धर्म केम
प्रगटे? तथा जो जूनी अवस्थानो अभाव न थाय तो अधर्म केम टळे? अने जो सळंगपणे परिणामोमां धु्रवता
न रहेती होय तो द्रव्य टके क्यां? माटे वस्तुमां उत्पाद–व्यय–धु्रव ए त्रणेने जाणवा जोईए. उत्पाद–व्यय–धु्रव