Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: पोष: २४७७ : ६५:
कोई जीव पुण्यनो शुभराग करीने एम माने के हुं धर्म करुं छुं, तो कांई तेने ते रागथी धर्म न थाय, पण तेणे
वस्तुस्वरूपने विपरीत जाण्युं तेथी ते अज्ञानना फळमां तेने चोराशीना अवतारमां रखडवानुं थशे.
परिणाम ते स्वभाव छे अने स्वभाववान् ते द्रव्य छे, एम जाणीने स्वभाववान् द्रव्यनी रुचि थतां ज
सम्यक्त्वनो उत्पाद, ते ज समये मिथ्यात्वनो व्यय अने सळंगपणे आत्मानी धु्रवता छे.
दरेक वस्तु ‘सत्’ छे, ‘सत्’ त्रिकाळ स्वयंसिद्ध छे. जो सत् त्रिकाळी न होय तो ते असत् ठरे. पण वस्तु
कदी असत् होय नहि. वस्तु त्रिकाळ छे एटले तेनो कोई कर्ता नथी, केम के त्रिकाळीनो रचनार न होय. जो
रचनार कहो तो ते पहेलांं वस्तु न हती एम ठरे एटले वस्तुनुं नित्यपणुं न रहे. वस्तु त्रिकाळ सत् छे, अने ते
वस्तु परिणामस्वभाववाळी छे, त्रिकाळी द्रव्य ज पोताना त्रणेकाळना वर्तमान–वर्तमान परिणामने रचे छे, ते
परिणामो पण स्वअवसरमां सत् छे, माटे ते परिणामनो रचनार पण बीजो कोई नथी. जेम त्रिकाळी द्रव्यनो
कर्ता कोई बीजो–ईश्वर वगेरे–नथी, तेम ते त्रिकाळी द्रव्यना वर्तमान परिणामनो पण कर्ता कोई बीजो (निमित्त,
कर्म के जीव वगेरे) नथी. पोताना एकेक समयना उत्पाद–व्यय–धु्रवमां टके छे माटे द्रव्य सत् छे. जो द्रव्य
बीजानां उत्पाद–व्यय–धु्रवने अवलंबे तो ते पोते सत् रही शके नहीं. माटे जे जीव द्रव्यने खरेखर ‘सत्’ जाणतो
होय ते द्रव्यनो के द्रव्यनी कोई पर्यायनो कर्ता बीजाने न माने; द्रव्यनो के द्रव्यनी कोई पर्यायनो कर्ता बीजाने
माने ते जीवे खरेखर ‘सत्’ ने जाण्युं नथी.
अहो, वस्तुना सत् स्वभावने जाण्या विना बहारना क्रियाकांडना लक्षे अनंतकाळ गाळ्‌यो, पण वस्तुनो
स्वभाव सत् छे तेने न जाण्यो, तेथी जीव संसारमां रखडी रह्यो छे.
परिणाममां वस्तु परिणमे छे, वस्तु परिणामथी जुदी रहेती नथी. एकेक समयना परिणाम वखते
आखी वस्तु साथे वर्ती रही छे–आम जाणे तो, क्षणिक राग जेटलो ज पोताने न मानतां ते वखते आखी वस्तु
रागरहित पडी छे–तेनो विश्वास करे, एटले रागनी रुचिनुं जोर तूटीने आखी वस्तु उपर रुचिनुं जोर वळ्‌युं,
एटले के सम्यक्रुचि उत्पन्न थई, राग अने आत्मानुं भेदज्ञान थयुं. हुं परमां नथी वर्ततो, मारा परिणाममां
परवस्तु नथी वर्तती, पण हुं मारा परिणाममां ज वर्तुं छुं–आम परिणाम अने परिणामीनी स्वतंत्रता जाणतां,
रुचि परमां नथी जती, परिणाम उपर पण नथी रहेती पण परिणामी द्रव्यमां घूसी जाय छे, एटले के सम्यक्–
रुचि थाय छे.
‘परिणाममां वस्तु वर्ते छे,’ बस! आम नक्की करवामां पर्यायबुद्धि टळीने वस्तुद्रष्टि थई जाय छे, तेमां
ज वीतरागता रहेली छे. मारी भविष्यनी केवळज्ञान पर्यायमां पण आ द्रव्य ज वर्तशे,–माटे भविष्यनी
केवळज्ञान पर्यायने जोवानुं न रह्युं, पण द्रव्य सामे ज जोवानुं रह्युं; द्रव्यनी सन्मुखतामां अल्पकाळे केवळज्ञान
थया विना रहे नहि.
अहो, हुं मारा परिणामस्वभावमां छुं, परिणाम ते उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वरूप छे, तेमां ज आत्मद्रव्य वर्ते छे–
आम स्ववस्तुनी द्रष्टि थतां परथी लाभ–नुकसान मानवानो मिथ्याभाव न रह्यो; त्यां सम्यग्ज्ञानपर्यायपणे
उत्पाद छे, मिथ्याज्ञानपर्यायपणे व्यय छे ने ज्ञानमां सळंग परिणामोपणे धु्रवता छे. –ए रीते आमां धर्म आवे छे.
‘परिणामीना परिणाम छे’–एम न मानतां जेणे परने लईने परिणाम मान्या तेणे परिणामीने द्रष्टिमां
न लीधो, पण पोताना परिणाम पर करे एम मान्युं एटले स्व–परने एक मान्या, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
परिणाम परिणामीना छे–एम परिणाम अने परिणामीनी स्वतंत्रतानी रुचिमां स्वद्रव्यनी सम्यक्रुचि उत्पन्न
थईने मिथ्यारुचिनो नाश थई जाय छे.
जुओ, आ वस्तुस्थितिनुं वर्णन छे. जैनदर्शन कोई वाडो के कल्पना नथी पण वस्तुओ जेवा स्वभावे छे
तेवी सर्वज्ञभगवाने जोई छे, ने ते ज जैनदर्शनमां कही छे. जैनदर्शन कहो के वस्तुनो स्वभाव कहो. –तेनुं ज्ञान
कर तो तारुं ज्ञान साचुं थशे ने भवनुं परिभ्रमण टळशे. जो वस्तुना स्वभावने विपरीत मानीश तो असत्
वस्तुनी मान्यताथी तारुं ज्ञान मिथ्या थशे अने तारुं परिभ्रमण मटशे नहि; केम के मिथ्यात्वने ज सौथी मोटुं
पाप गणवामां आव्युं छे, ते ज अनंत संसारनुं मूळ छे.