Atmadharma magazine - Ank 087
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 28 of 31

background image
कारतक वद १२ बुधवार
प्रवचनसार गाथा ९९ भावार्थ ! त्र्
दरेक द्रव्य सदाय स्वभावमां रहे छे तेथी ते ‘सत्’ छे. वस्तु पोताना परिणाममां वर्तमान रहेती होय तो
‘सत्’ रहे ने? जो वर्तमान परिणाममां न रहेती होय तो वस्तु ‘सत्’ कई रीते रहे? उत्पाद–व्यय–धु्रववाळो
परिणाम ते वस्तुनो स्वभाव छे, ने ते वर्तमान परिणाममां वस्तु सदाय वर्ती रही छे, तेथी ते सत् छे.
आत्मानुं क्षेत्र असंख्यप्रदेशी एक छे, ने ते क्षेत्रनो नानामां नानो अंश ते प्रदेश छे. तेम आखा द्रव्यनी
प्रवाह–धारा एक छे, ने ते प्रवाहधारानो नानामां नानो अंश ते परिणाम छे.
क्षेत्र अपेक्षाए द्रव्यनो सूक्ष्म अंश ते प्रदेश छे.
काळ अपेक्षाए द्रव्यनो सूक्ष्म अंश ते परिणाम छे.
आ तो ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि कराववा माटे वर्णन छे. परिणाम परिणामीमांथी आवे छे, –एवा
परिणामी द्रव्यनी द्रष्टि कर तो ते परिणामीना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र परिणाम ऊपजे, टके अने
वधीने पूर्ण थाय.
एकेक परिणाम पोताना स्वकाळमां ऊपजे छे, पूर्व परिणामथी व्ययरूप छे ने सळंग प्रवाहमां ते धु्रव छे.
केवळज्ञानपरिणाम पोताना स्वरूप अपेक्षाए स्वकाळे उत्पादरूप छे, पूर्वनी अल्पज्ञ पर्याय अपेक्षाए ते व्ययरूप
छे, ने द्रव्यना सळंग प्रवाहमां तो ते केवळज्ञान–परिणाम धु्रव छे; ए रीते बधाय परिणामो पोतपोताना
वर्तमान काळमां उत्पाद–व्यय–धु्रववाळा छे, ने ते ते वर्तमान परिणाममां वस्तु वर्ती रही छे, एटले के वस्तु
वर्तमानमां ज पूरी छे. एवी वस्तुनी द्रष्टि कर तो तेना आश्रये धर्म थाय छे. ज्ञानी केवळज्ञान–पर्यायना काळने
गोतता नथी (अर्थात् तेना उपर द्रष्टि करता नथी) केम के ते पर्याय अत्यारे तो सत् नथी पण भविष्यमां तेना
स्वकाळे ते सत् छे, माटे ज्ञानी तो वर्तमानमां सत् एवा धु्रवद्रव्यने ज गोते छे (–धु्रव उपर द्रष्टि करे छे.) आ
अपेक्षाए नियमसारमां उदय–उपशम–क्षयोपशम ने क्षायक ए चारे भावोने विभावभाव कह्या छे. जे पर्याय
वर्तमान उत्पादपणे वर्ते छे ते तो अंश छे; केवळज्ञान–पर्याय पण अंश छे, –ते वर्तमान प्रगट नथी अने
भविष्यमां प्रगट थशे–एम परिणामना काळ उपर जोवानुं नथी रहेतुं पण वर्तमान परिणाम वखते धु्रवपणे
आखुं द्रव्य वर्ती रह्युं छे ते द्रव्यनी प्रतीत करवानुं आमां आवे छे, द्रव्यनी द्रष्टि थतां वीतरागता थाय छे.
शास्त्रोनुं तात्पर्य वीतरागता छे वीतरागताने तात्पर्य कहेतां स्वभावनी द्रष्टि करवी ए ज तात्पर्य छे–एम
आव्युं, केम के वीतरागता तो स्वभावनी द्रष्टिथी ज थाय छे. अंतरमां द्रव्यस्वभाव उपर लक्ष रहेतां वीतरागता
थई जाय छे; आथी धु्रवद्रव्यस्वभावनी द्रष्टि ते ज सर्वस्व कार्यकर थई. पर्यायने गोतवानुं न रह्युं एटले के
पर्यायनी द्रष्टि न रही. धु्रवस्वभावनी द्रष्टि राखीने पर्यायनो ज्ञाता रह्यो, तेमां वीतरागता थती जाय छे.
वीतरागता थाय ते तात्पर्य छे, पण ते वीतरागता केम थाय? वीतरागपर्यायने शोधतां (एटले के ते
पर्यायनी सामे जोतां) वीतरागता नथी थती पण धु्रवतत्त्वना आश्रये रहेतां पर्यायमां वीतरागतारूप तात्पर्य
थई जाय छे. ए रीते, द्रव्य उपर द्रष्टि थवी तेमां ज तात्पर्य आवी जाय छे. एटले, शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता
छे एम कहो, के शास्त्रनुं तात्पर्य स्वभावद्रष्टि छे–एम कहो, बंने एक ज छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
‘जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि कांई, लक्ष थवाने तेहनो कह्यां शास्त्र सुखदाई.’
जेवो भगवाननो आत्मा, तेवो ज पोताना आत्मा, तेना स्वभावमां कांई भेद नथी. एवा स्वभावनुं
लक्ष करवुं ते ज शास्त्रोनो सार छे.
अहीं परिणामोना उत्पाद–व्यय–धु्रवनी वात चाले छे, तेमांथी वीतरागी तात्पर्य कई रीते नीकळे छे ते
बताव्युं. परिणामोनुं धु्रवपणुं तो सळंग प्रवाह अपेक्षाए छे. हवे परिणामोनो प्रवाहक्रम एक साथे तो वर्ततो
नथी, एटले परिणामोनुं धु्रवपणुं नक्की करवा जतां धु्रवस्वभाव उपर ज द्रष्टि जाय छे. धु्रवस्वभावनी द्रष्टि
वगर परिणामना उत्पाद–व्यय–धु्रव नक्की थई न शके. परिणामने धु्रव क्यारे कह्यो? –के परिणामोना आखा
प्रवाहनी अपेक्षाए तेने धु्रव कह्यो; आखो प्रवाह एक समयमां प्रगटी जतो नथी एटले परिणामनी धु्रवता
नक्की करवा जनारनी द्रष्टि एकेक परिणाम उपरथी खसीने धु्रवद्रव्य उपर गई. परिणाम उपरनी द्रष्टिथी
(पर्यायद्रष्टिथी) परिणामनी धु्रवता नक्की नहि थाय. परिणामोनो