Atmadharma magazine - Ank 088
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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महा : २४७७ : ७७ :
(१३) साची क्रियाने ज्ञानी स्थापे छे, अज्ञानी उथापे छे.
दरेक वस्तुनी साची क्रियाने ज्ञानी स्थापे छे अने अज्ञानी ते क्रियाने उथापे छे. ते आ प्रमाणे:–
(१) जडनी क्रिया: शरीरादि जडनी क्रिया एनी मेळे स्वतंत्रपणे थाय छे, आत्मा तेने करतो नथी–आम
ज्ञानीओ जडनी स्वतंत्र क्रियाने स्थापे छे; अने अज्ञानीओ कहे छे के जडनी क्रिया एनी मेळे थती नथी पण
आत्मा तेने करे छे,–एटले अज्ञानीओ जडनी स्वतंत्र क्रियाने उथापे छे.
(२) विकारी क्रिया: पुण्यभाव ते धर्मनी क्रिया नथी पण विकारी क्रिया छे–आम ज्ञानीओ विकारनी
क्रियाने विकारी क्रिया तरीके स्थापे छे; अने अज्ञानीओ ते पुण्यभावने विकारी क्रिया तरीके न मानतां तेने
धर्मनी क्रिया तरीके माने छे, एटले तेओ विकारनी क्रियाने उथापे छे.
(३) धर्मनी क्रिया: विकाररहित आत्माना वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप भाव ते धर्मनी क्रिया छे–
आम ज्ञानीओ धर्मनी क्रियाने स्थापे छे; अने अज्ञानीओ देहनी क्रियामां तथा पुण्यनी क्रियामां धर्म मानीने
आत्माना धर्मनी स्वतंत्र क्रियाने उथापे छे.
टूंकमां, ज्ञानी जगतना बधाय पदार्थोनी क्रियाने स्वतंत्र स्थापे छे अने अज्ञानी जगतना बधाय
पदार्थोनी क्रियाने पराधीन मानीने तेनी स्वतंत्र क्रियाने उथापे छे. एक द्रव्य बीजा द्रव्यनी क्रिया करे एम जेणे
मान्युं तेणे साची क्रियाने स्थापी नथी पण उथापी छे. अने एक द्रव्य बीजा द्रव्यमां कांई पण क्रिया करे नहि–
एम मानवुं ते ज दरेक द्रव्यनी स्वतंत्र क्रियानुं स्थापन छे.
(१४) अज्ञान ते सौथी मोटो दोष छे
जीव पोतानी ज भूलथी अनादिथी रखडी रह्यो छे. अज्ञान ते सौथी मोटो दोष छे, अज्ञान ते बचाव
नथी. लौकिकमां कंईक गुन्हो करे अने पछी एम कहे के मने कायदानी खबर न हती. तो ते बचाव काम आवे
नहि. केमके अज्ञान ते बचाव नथी. तेम आत्मस्वभावनी समजण करे नहि अने पुण्यने धर्म माने तो ते
अज्ञान छे–अपराध छे ने तेनाथी जीव संसाररूपी जेलमां रखडे छे. जीवने सत् संभळावनार न मळ्‌या माटे ते
रखड्यो–एम नथी, पण पोते आत्मामां सत् समजवानी पात्रता प्रगट न करी, तथा कोई वार सत् सांभळवा
मळ्‌युं त्यारे तेनी रुचि करी नहि ने अज्ञानभावनुं सेवन चालु राख्युं तेथी ज रखड्यो छे. तीर्थयात्रा करवानो
भाव के जिनमंदिर बंधाववानो रागभाव ते धर्म नथी पण पुण्य छे. पुण्य अने पाप बंने भाव अधर्म छे–एवी
जेनी मान्यता नथी ते मिथ्याद्रष्टि छे–जैन नथी.
–: टीका :–
(१प) अशुद्धोपयोगना विनाशनो अभ्यास
‘जे आ, परद्रव्यना संयोगना कारण तरीके कहेवामां आवेलो अशुद्ध उपयोग, ते खरेखर मंद–तीव्र
उदयदशामां रहेला परद्रव्य अनुसार परिणतिने आधीन थवाथी ज प्रवर्ते छे, परंतु अन्य कोई कारणथी नहि.
माटे बधाय परद्रव्यमां हुं आ मध्यस्थ थाउं. अने मध्यस्थ थतो हुं परद्रव्य अनुसार परिणतिने आधीन नहि
थवाथी शुभ अथवा अशुभ एवो जे अशुद्ध उपयोग तेनाथी मुक्त थईने, केवळ स्वद्रव्य अनुसार परिणतिने
ग्रहवाथी जेने शुद्धोपयोग सिद्ध थयो छे एवो थको, उपयोगात्मावडे आत्मामां ज सदा निश्चळपणे उपयुक्त रहुं छुं.
आ मारो परद्रव्यना संयोगना कारणना विनाशनो अभ्यास छे.’
(१६) शुद्ध अने अशुद्ध भावोनी उत्पत्तिनुं कारण परिणति परद्रव्यने अनुसरे तो अशुद्ध
उपयोग थाय छे, अने परिणति स्वद्रव्यने अनुसरे तो शुद्ध उपयोग थाय छे. अशुद्ध उपयोग ते अधर्म छे
अने संसारनुं कारण छे. शुद्ध उपयोग ते धर्म छे ने मुक्तिनुं कारण छे. पुण्य अने पाप ए बंने अशुद्ध भावो
परद्रव्यना आधीनपणाथी थाय छे, तेथी ते धर्म नथी. आत्माना आधीनपणे शुभ–अशुभ भावनी उत्पत्ति
थाय नहि. आत्मानो ज्ञाता–द्रष्टा स्वभाव छे ते स्वभावने आधीन रहे तो शुभ–अशुभनी उत्पत्ति थती
नथी पण शुद्धता प्रगटे छे. पोताना शुद्ध स्वभावनुं भान होवा छतां नीचली दशामां धर्मीने पण पूजा–
भक्ति–व्रत वगेरे शुभभाव थया वगर रहे नहि, पण ते जाणे छे के आ शुभभाव मारा स्वद्रव्यने अनुसार
थतो नथी पण परद्रव्यने अनुसार थाय छे तेथी ते मारो स्वभाव नथी. एटले खरेखर ते धर्मी जीव
शुभभावने पोताथी भिन्न परज्ञेय तरीके जाणे छे, ने आत्मानी सन्मुखतानी भावना करे छे. शुभभाव
थाय तेमां देव–गुरु–शास्त्र वगेरे