Atmadharma magazine - Ank 088
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 13

background image
: ७६: आत्मधर्म : ८८
ज्ञेयअधिकारमां दर्शनशुद्धिनुं वर्णन पण समाई जाय छे. जे दर्शनशुद्धि प्रगटी ते पण ज्ञाननुं ज्ञेय छे. दर्शनशुद्धि
पोते पोताने जाणती नथी पण ज्ञान ज तेने जाणे छे.
(९) ज्ञेय–ज्ञायक स्वभाव
आत्मामां ज्ञान स्वभाव छे एटले ते बधाने जाणनार छे, अने दरेक पदार्थमां प्रमेयत्व गुण छे एटले के
बधा पदार्थो ज्ञानमां जणावायोग्य–ज्ञेय छे. आ आत्मा पोते ज्ञानरूप पण छे ने ज्ञेयरूप पण छे. आत्माना
ज्ञानमां बधा पदार्थो जणाय एवो स्वभाव छे. पदार्थोनो स्वभाव एवो छे के ते ज्ञानमां जणाय, अने ज्ञाननो
स्वभाव एवो छे के ते पदार्थोने जाणे. आत्माने पर साथे आवो ज्ञेय–ज्ञायक संबंध ज छे. ए सिवाय आत्मा
परमां कांई करे के पर वस्तु आत्मामां कांई करे–एवो ज्ञाननो के ज्ञेयनो स्वभाव नथी. आवा स्वभावनी प्रतीत
ते धर्मनुं मूळ अने शरूआत छे.
(१०) शुद्धोपयोग माटे धर्मी जीवनी भावना
बधा परज्ञेयो माराथी भिन्न छे, हुं तेनो जाणनार ज छुं, तेमां कांई करनार नथी, ज्ञान ए ज मारो
स्वभाव छे, ए प्रमाणे ज्ञेय–ज्ञायकनुं भेदज्ञान अने ज्ञानस्वभावनी प्रतीत थया पछी धर्मी केवी भावना करे छे
तेनुं अहीं वर्णन छे. धर्मी जीव एम भावना करे छे के अशुभ के शुभउपयोग रहित थयो थको, अने समस्त
परद्रव्य प्रत्ये मध्यस्थ थईने हुं ज्ञानस्वरूप मारा आत्माने ध्याउं छुं. शुभ–अशुभभाव रहित आत्मस्वभावनुं
भान तो चोथा गुणस्थानथी ज थई जाय छे, हवे अहीं तो आचार्यदेव पोतानी वर्तमान भूमिकाथी
चारित्रदशाना शुद्धोपयोगनी वात करे छे. शुभ–अशुभभावो रहित आत्माना स्वभावनुं भान थया पछी,
चारित्रदशामां जे शुभभाव थाय छे ते पण बंधनुं कारण होवाथी तेने छोडीने हुं आत्मस्वभावने ध्याउं छुं,
एटले स्वद्रव्यने ज द्रष्टिमां लईने तेमां ठरुं छुं. आ शुद्धोपयोग छे, तेनाथी अशुद्धोपयोगनी विनाश थाय छे.
जीवने परद्रव्यना संयोगनुं कारण अशुद्धोपयोग छे–एम १प६ मी गाथामां अशुद्धोपयोगनी वात करीने, तेना
शुभ अने अशुभ एवा भेदोनुं वर्णन १प७ तथा १प८ मी गाथामां कर्युं; अने आ १प९ मी गाथामां ते
अशुद्धोपयोगनो नाश करवाना उपायनी वात करी छे.
(११) जीव संसारमां केम रखडयो?
जीवे अनंतकाळमां आत्माना स्वभावनी वात कदी रुचिथी सांभळी नथी. ज्यारे सत् संभळावनार
मळ्‌या त्यारे वात काने पडी पण अंतरमां तेनी रुचि प्रगट करी नथी. आत्मस्वभाव समज्या वगर अनंतवार
समवसरणमां जईने साक्षात् तीर्थंकरभगवाननी पूजा हीराना थाळमां कल्पवृक्षनां फूलथी करी, बहारमां
भगवान सामे जोयुं पण अंदरमां पोतानो आत्मा भगवान छे तेना सामे जोयुं नहि; तेथी पुण्य बांधीने
संसारमां रखड्यो. कोई वार देव थईने साक्षात् तीर्थंकरभगवानना पंचकल्याणकमां गयो, परंतु ते वखते मात्र
बाह्यसंयोग उपर द्रष्टि राखी अने पुण्यक्रियामां आत्मानो धर्म मानी लीधो तेथी संसारमां ज रखड्यो. अंदर
आत्मानो सहज चैतन्यस्वभाव शुं छे अने तेनी धर्मनी क्रिया शुं छे? ते वातने न समज्यो.
(१२) क्रियानुं स्वरूप
जुओ! आ धर्मनी क्रिया कहेवाय छे. आत्माना सहज स्वभावने ओळखीने तेनी श्रद्धा–ज्ञान करवां ते
धर्मनी पहेली क्रिया छे. आ प्रतिष्ठा–महोत्सवमां जे बहारनी क्रिया देखाय छे ते जडनी क्रिया छे, अंदर शुभराग
थाय छे ते आत्मानी विकारी क्रिया छे अने ‘हुं जडनी क्रियानो कर्ता नथी तथा राग मारो स्वभाव नथी’ एम
जडनी ने विकारनी क्रियाथी भिन्न चैतन्यस्वभावनुं अंतरमां भान करवुं ते धर्मनी क्रिया छे. ए प्रमाणे क्रियाना
त्रण प्रकार छे–(१) जडनी क्रिया, (२) विकारी क्रिया अने (३) धर्मनी क्रिया. शरीरादिनी हालवा–चालवानी के
बोलवानी जे क्रियाओ थाय छे ते जडनी क्रिया छे, तेनुं कारण जड छे; ते क्रियामां आत्मानो धर्म के अधर्म नथी.
आत्मानी अवस्थामां जे शुभ अने अशुभ परिणाम थाय ते अरूपी विकारी क्रिया छे; आ विकारी क्रिया अधर्म
छे, तेमां धर्म नथी. हवे त्रीजी क्रिया धर्मनी छे. शरीरादि जडनी क्रियारहित तेम ज राग–द्वेषादि विकारी
क्रियारहित, आत्माना चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूपी जे पवित्र क्रिया छे ते धर्मनी क्रिया छे, ने ते
क्रिया मोक्षनुं कारण छे. सम्यग्द्रष्टिने तीर्थंकरनामकर्मना आस्रवना कारणभूत जे सोळभावना होय ते पण
शुभरागनी क्रिया छे, तेने ज्ञानी धर्म मानता नथी.