Atmadharma magazine - Ank 088
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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महा : २४७७ : ७५ :
आत्मामां जे राग–द्वेषनी लागणी थाय ते तेनुं मूळस्वरूप नथी, मूळस्वरूप तो सिद्धसमान परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप,
राग–द्वेष रहित छे. बहारना लक्षे थता शुभाशुभ भावथी बाह्यसंयोग मळे पण स्वभाव न मळे. शुभ के
अशुभ भाव आत्माने आकुळतारूप दुःखनुं ज कारण छे. शुभाशुभ भाव परद्रव्यना संयोगनुं कारण छे एम
कहेवुं ते फक्त निमित्त–नैमित्तिक संबंधनुं कथन छे.
(प) बंधनभाव अने धर्मभाव
पुण्य अने पाप बंने संयोगी भावो छे, तेनाथी नवुं बंधन थाय छे. जे भावे आत्माने नवुं बंधन थाय
ते भाव धर्म न होय. जे भाव धर्म होय ते नवा बंधननुं कारण थाय नहि. जो धर्मभावथी पण बंधन थतुं होय
तो तो जेम जेम धर्म वधतो जाय तेम तेम आत्माने बंधन पण वधतुं जाय. तो पछी आत्मानी मुक्ति क्यारे
थाय? माटे धर्म कदी बंधननुं कारण थाय नहि. तेम ज शुभ रागभाव ते बंधननुं कारण छे, तेनाथी धर्म थाय
नहि. जो रागभाव धर्मनुं कारण थतुं होय तो तो जेम जेम राग वधे तेम तेम धर्म पण वधतो जाय, एटले
केवळी भगवानने घणो राग थई जाय! परंतु एम कदी बने नहि. जे भावथी बंधन थाय ते भावथी धर्म नहि
अने जे भावथी धर्म थाय ते भावथी बंधन नहि. जे भावे तीर्थंकर–नामकर्मनुं बंधन थाय ते भाव पण
आत्माना स्वभावथी विरुद्धभाव छे, बंधनभाव छे, ने चोख्खा शब्दथी कहीए तो ते पण अधर्मभाव छे. केम के
धर्मभाव वडे कर्मनुं बंधन थाय नहि.
(६) अंशे अधर्म अने आखो अधर्म
कोई कहे के तीर्थंकरनामकर्म बंधायुं ते भावमां अंशे तो धर्म छे ने?–तो कहे छे के ना; तीर्थंकरनामकर्म जे
भावे बंधाय ते भाव अंशे धर्म नथी पण अंशे अधर्म छे. अहीं ‘अंशे अधर्म’ शा माटे कह्यो? तेनो खुलासो :
जे रागभावे तीर्थंकर नामकर्म बंधायुं ते रागभाव तो अधर्म ज छे, तेमां कांई धर्मनो अंश नथी. परंतु
तीर्थंकरनामकर्म सम्यग्द्रष्टिने ज बंधाय छे, शुभराग वखते सम्यग्द्रष्टिने आत्मानुं यथार्थ ज्ञान–श्रद्धान छे तेटले
अंशे धर्म छे ने जेटलो राग छे तेटलो अधर्म छे. ए रीते राग वखते पण तेनी साथे ज्ञानीने सम्यग्दर्शन–
ज्ञानरूप धर्मना अंशो छे ते बताववा तेना रागने ‘अंशे अधर्म’ कह्यो छे; राग वखते तेमने मिथ्यात्वरूप अधर्म
नथी तेथी तेने ‘अंशे अधर्म’ कह्यो; अने मिथ्याद्रष्टि तो ते रागने ज धर्म माने छे तेथी तेने ‘अंशे अधर्म नथी,
पण तेनो तो आखेआखो अधर्म छे, धर्म जरा पण नथी.
(७) अशुद्ध उपयोग ते अधर्म; शुद्ध उपयोग ते धर्म
साचा देव–गुरुनी भक्ति, जीवोनी अनुकंपा वगेरेनो भाव ते शुभभाव छे, अने साचा देव–गुरुथी
विरुद्ध एवा कुमार्गनी श्रद्धा, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग तथा विषय–कषाय वगेरे भावो ते अशुभभाव छे. आ
शुभ ने अशुभ बंने भावो आत्माने परद्रव्यना संयोगनुं कारण छे तेथी ते अधर्म छे,–अशुद्धभाव छे, अने ते
शुभ–अशुभ भावोथी रहित थईने आत्माना ध्यानमां लीन थवुं ते शुद्धभाव छे, ते धर्म छे ने ते आत्माने
मुक्तिनुं कारण छे. तेथी अशुद्ध उपयोगनो विनाश करवा माटे अने शुद्धोपयोगथी आत्मामां लीन रहेवा माटे
धर्मी जीव केवो अभ्यास करे छे तेनुं श्री आचार्यभगवान वर्णन करे छे:–
मध्यस्थ परद्रव्ये थतो, अशुभोपयोग रहित ने
शुभमां अयुक्त हुं ध्याउं छुं निज आत्मने ज्ञानात्मने. १प९.
‘अन्यद्रव्यमां मध्यस्थ थतो हुं अशुभोपयोग रहित थयो थको तेम ज शुभोपयुक्त नहि थयो थको
ज्ञानात्मक आत्माने ध्याउं छुं.’–आ प्रमाणे, परद्रव्यना संयोगनुं कारण जे अशुद्धोपयोग तेना विनाश माटे
ज्ञानी अभ्यास करे छे. अहीं मुख्यपणे मुनिनी वात छे.
(८) धर्म अने धर्मनुं मूळ
आ ज्ञेय–अधिकार छे. श्री जयसेनाचार्यदेवे आने दर्शनशुद्धिनो अधिकार पण कह्यो छे. सम्यग्दर्शन ते
धर्मनुं मूळ छे, ने चारित्र ते साक्षात् धर्म छे. ते चारित्र कोई बाह्य क्रियाकांडमां नथी पण आत्मामां मोह अने
क्षोभरहित वीतरागी साम्यभाव प्रगटे ते चारित्र छे. व्रत अने अव्रत रहित आत्मानो वीतरागभाव ते
चारित्रधर्म छे, तेनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन वगर कदी चारित्रधर्म होतो नथी. जगतना बधा पदार्थो
ज्ञेय छे, ने ते बधाने जाणनार मारो ज्ञानस्वभाव छे; ए प्रमाणे ज्ञेय पदार्थोनी प्रतीत साथे पोताना पूर्ण
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत पण आवी जाय छे, एटले