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जुओ, आ पंचकल्याणक–महोत्सवना दिवसो छे. खरेखर तो, सर्वज्ञभगवान केवा होय अने तेमणे
कल्याणनो मार्ग छे. सुपात्र जीवोने देव–गुरु–धर्मनी भक्ति–प्रभावना तेम ज जिनमंदिर बंधाववा वगेरेनो
शुभराग होय छे, पण त्यां एकला रागनो हेतु नथी, तेनुं लक्ष तो अंतरमां वीतरागभाव पोषवानुं होय छे.
आत्मानो स्वभाव रागरहित छे, ते स्वभावना लक्ष वगर पंचकल्याणक वगेरेना शुभभाव जीवे पूर्वे घणी वार
कर्या ने तेमां धर्म मानी लीधो. पण आत्माना भान वगर तेनुं भवभ्रमण मट्युं नहि. अहीं तो, आत्मानुं
अपूर्व भान प्रगटीने भवभ्रमण केम मटे तेनी वात छे.
पोताना रागरहित ज्ञानस्वभावना भान वगर अनादिथी राग–द्वेष–अज्ञानभावनो कर्ता थईने आत्मा
संसारनुं कारण छे ने शुद्ध उपयोग ते मुक्तिनुं कारण छे; तेथी धर्मी जीव ते अशुद्धोपयोगनो विनाश करीने
शुद्धउपयोगथी आत्मामां ज लीन रहेवानी भावना करे छे, तेनुं वर्णन आ १प९मी गाथामां कर्युं छे.
अशुभ उपयोग थाय ते बंधन छे, अशुभ भाव छे, ते आत्माना धर्मनुं कारण नथी. शुभ के अशुभ बंने
भावोथी आत्माना स्वभावनी खीलवट थती नथी पण बंधन थाय छे अने तेनाथी आत्माने शरीरादि
परद्रव्योनो संयोग एटले के संसार थाय छे. शुभअशुभ रागरहित आत्माना स्वभावनी ओळखाण करीने
तेमां रमणता करवी ते शुद्धोपयोग छे, ते ज धर्म छे अने ते मोक्षनुं कारण छे. अशुद्धउपयोग परद्रव्यने
अनुसरीने थाय छे अने तेना फळमां पण परद्रव्यनो ज संयोग थाय छे; शुद्धउपयोग स्वद्रव्यने अनुसार थाय
छे ने तेना फळमां मुक्तदशा प्रगटे छे.
धर्म नथी. शुद्धज्ञानमय जीवतत्त्वना आश्रये जे सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगटे ते ज धर्म छे. अनादिकाळथी
जीव संसारमां रखडी रह्यो छे, तेमां अनंतकाळे आ मनुष्यदेह पामीने जो आत्मा तरफ वलण नहि करे अने
अत्यारे सत् नहि समजे, तो जन्म–मरणनो अंत लाववानी शरूआत पण थशे नहि. पुण्य–पापरहित त्रिकाळी
चैतन्यमूर्ति आत्मस्वभावनी ओळखाण करीने तेनी रुचि–प्रतीत अने रमणता करवी ते ज शुद्धोपयोग छे अने
ते शुद्धोपयोग ज मुक्तिनुं कारण छे. देव–गुरु वगेरे परनी भक्तिनो शुभभाव के परना अविनयनो
अशुभभाव ते बंनेमां पर तरफनुं वलण छे तेथी ते बंने उपाधिभाव छे, तेमां धर्म नथी.
प्रभु! तारी चैतन्य जात शुं छे ते अहीं बतावाय छे. जे आत्माओ अंर्तस्वभावनुं भान करीने तेमां
टळ्या तेथी राग–द्वेष ते तारी जात नथी. जेम पाणीनो मूळ स्वभाव ठंडो छे, उष्णता तेनुं स्वरूप नथी, तेम