Atmadharma magazine - Ank 088
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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पुण्य, पाप अने धर्म सम्बंधमां–आत्मार्थी
जीवनो विवेक केवो होय?
विकारनुं कार्य करवा जेवुं छे एम माननार जीव विकारने तोडी शके नहि. कोई जीव आत्माने एकान्त शुद्ध ज
माने, अज्ञानभावे विकार करे छे छतां न माने तो विकारने तोडी शके नहि. पुण्य बंधन छे माटे मोक्षमार्गमां तेनो
निषेध छे–ए खरुं, परंतु व्यवहारे पण तेनो निषेध करी पापमार्गमां प्रवृत्ति करे तो ते पाप तो काळकूट झेर समान छे,
एकला पापथी तो नरक–निगोदमां जाशे. श्रद्धामां तो पुण्य अने पाप बंने होय छे, पण वर्तमानमां शुद्धभावमां न रही
शके तो शुभमां जोडाय पण अशुभमां तो न ज जाय. पुण्यभाव छोडी पापभाव करवो ते तो कोई रीते ठीक नथी. वळी
कोई पुण्यभावने ज धर्म मानी ल्ये तो तेने पण धर्म न थाय. कोई कहे के अमारे पुण्यभाव नथी करवो, अथवा तो
सामानां पुण्य हशे तो मारी तृष्णा घटशे,–आम खोटा बहाना काढे छे ने राग घटाडतो पण नथी. तो तो हे भाई! हजी
तुं निर्विकल्प शुद्धभावने तो पाम्यो नथी ने पुण्यभाव पण तारे करवो नथी तो शुं तारे पापमां ज जवुं छे? तृष्णा
घटाडवी तो तारा परिणामने आधीन छे, सामाना पुण्यने आधीन नथी. माटे पुण्यपाप रहित आत्माना भानसहित
वर्तमान योग्यता प्रमाणेनो बधो विवेक प्रथम समजवो जोईए. वळी कोई शुभभावमां ज संतोष मानीने रोकाई जाय,
अथवा तेनाथी धीमेधीमे धर्म थशे–एम पुण्यने धर्मनुं साधन माने तो तेना पण भवफेरा टळशे नहि. धर्मनी शरूआत
करवानी ईच्छावाळाए तीव्र आसक्ति तो घटाडवी ज जोईए, पण तेटलाथी तरी जवाशे–एम माने तो ते खोटुं छे.
जीवने पापथी छोडावीने मात्र पुण्यमां अटकावी देवो नथी पण पाप तेम ज पुण्य बंनेथी रहित ज्ञायकस्वभाव
बताववो छे. माटे पुण्य–पाप अने ए बंनेथी रहित धर्म, ते दरेकनुं स्वरूप जाणवुं जोईए.
ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे तहां समजवुं तेह,
त्यां त्यां ते ते आचरे आत्मार्थी जन एह.
(आत्मसिद्धि गा. ८)
हुं अक्रिय ज्ञानानंद शुद्ध आत्मा छुं–ए निश्चय, अने तेनुं भान करी तेमां अंशे अंशे स्थिरता वधारी
राग टाळवो ते व्यवहार; हुं शुद्ध ज्ञायक छुं, अशुभथी बचवा माटे शुभभावमां जोडावुं ते पण विकार छे, ते
मारुं खरुं स्वरूप नथी–आम समजवुं अने पोताना परिणाम सुधारवानो प्रयत्न राखवो ते आत्मार्थी जीवनुं
कर्तव्य छे. पहेलांं पुण्य–पापरहित आत्मस्वभावने श्रद्धाज्ञानमां नक्की करीने, पछी पुण्य–पापरूप विकारथी
पाछो खसी अंतरमां अरूपी ज्ञानशांतिमां ठरवुं, ए ज आत्मार्थीनुं कर्तव्य छे. ते माने अने आचरे, तथा ते ज
मानवा अने आचरवानी अंतरथी भावना राखे ते पण आत्मार्थी छे.
–समयसार–प्रवचनो, भाग १ पृ. १४२–३
‘अहो वाणी तारी...!’
अहो! पंचमकाळे श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे अने श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे समयसारमां अमृत वरसाव्या छे. जेना
श्रवणनी मीठाश, मधुराश! जे सांभळतां ज जिज्ञासुने तत्त्वनुं बहुमान आवे के, अहो! आवी वात कदी सांभळी नथी.
केवी स्पष्ट वात! आ निर्मळ–चोख्खी वात जेने आत्मामां बेठी ते पाछो न पडे. हुं भाळीने कहुं छुं के हुं सिद्ध, तुं पण
सिद्ध,–एम श्री आचार्यदेव कहे छे; तेनी हा पाडे एवा लायक जीवने ज समयसारमां शुद्धात्मानी वात संभळावे छे.
अहो! टीकामां परम अद्भुत, अलौकिक वात छे. श्री आचार्यदेवे अपूर्व सत्नी स्थापना करी–करावीने प्रथम ज
मोक्षना मांगळिक गाया,–दरेक आत्मामां सिद्धपणानुं स्थापन कर्युं.–ए ज सर्वोत्कृष्ट मंत्र छे; तेनो गुंजारव करी आचार्य
महाराज संसारमां सूतेलाने जगाडे छे. जेम मोरलीना नादे सर्प जागृत थई आनंदथी डोली ऊठे तेम, हे जीव! देहरूपी
गुफामां तुं त्रिलोकीनाथ आत्मा छे, समयसारमां तारा महिमानां गाणां गवाय छे, तो तुं केम न नाचे? ‘तुं पूर्ण छे,
प्रभु छे’ ए होंशथी सांभळी एकवार डोलीने (आनंदथी) ‘हा’ पाड.–कहे के ‘हुं सिद्ध छुं, ए पूर्ण स्वभाव सिवाय
बीजुं कांई जोईतुं नथी.’ सर्वज्ञ वीतरागे तो तारी सवतंत्रतानी जाहेरातना ढंढेरा पीट्या छे. जेम राजा गादीए बेसतां
ढंढेरो जाहेर करे के हवे अमारां राज छे. तेम अमे तने सिद्धपदना राजमां स्थापीए छीए; तुं ज्ञानी थई, आत्मामां राजी
थई कहे के मारुं सिद्धपदनुं राज छे, तेमां संसारपदनो नाश छे. अमे प्रथम सिद्धपदनी गादीए बेठा, अने सिद्धपणानी
जाहेरात करी, तने पण तेम ज कहीए छीए. माटे तुं आनंदथी हा पाडीने सांभळ!
(जुए, समयसार–प्रवचन भाग १ पृ. ४३, ४२)