संयोगरूपे तो भगवान घणी वार मळी गया. पण अंतरमां भगवान जेवा पोताना आत्मानुं लक्ष करे तो
खरेखर जिनवर स्वामी मळ्या कहेवाय. श्री कुंदकुंदाचार्य भगवान प्रवचनसारमां कहे छे के–जे जीव अरिहंत
जाय छे. आत्माने वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त थवुं अनंतकाळे दुर्लभ छे, अने ए तत्त्वज्ञान पामवानो योग
मळवो पण घणो दुर्लभ छे. साचा देव–गुरु शुं कहे छे ते समजवानो अवसर अनंतकाळे आवे छे. आवा
प्रसंगने बराबर उत्साहथी वधावी लेवो जोईए. बहारनो प्रसंग तो तेना कारणे भजे छे, पण अंदर साची
समजणनो उत्साह जोईए. आत्मानी समजणनी दरकार वगर एकली बहारनी हो–हा करे तेमां कल्याण नथी.
आत्माना भान पछी पण वीतरागी देव–गुरु प्रत्ये बहुमान अने भक्तिनो भाव तो आवे पण ज्ञानी तेने धर्म
न माने, ते शुभरागमां ज सर्वस्व मानीने तेमां अटकी न जाय. अज्ञानीओ तो ते रागमां ज सर्वस्व मानीने,
तेने ज धर्म मानीने त्यां अटकी पडे छे. अष्टाह्निका महोत्सव वखते घणा सम्यग्द्रष्टि देवो पण नंदिश्वर द्वीपे जाय
छे, अने त्यां शाश्वत बिराजमान रत्नमणिना जिनबिंबना दर्शन–पूजन करीने भक्तिथी नाची ऊठे छे.
पासे त्रण ज्ञानधारी एकावतारी सम्यग्द्रष्टि ईन्द्र–ईन्द्राणीओ पण नानी बाळिकानी जेम भक्तिभावथी नाची
ऊठे छे. अंदर चैतन्यबिंब आत्मानुं भान छे, एवी निश्चयनी भूमिका होवा छतां नीचली दशामां तेवो राग
वच्चे आवे छे, ने ते रागना निमित्तभूत वीतरागी जिनबिंब छे. एवा रागने तथा तेना निमित्तने न ज माने
तो ते अज्ञानी छे, अने ते रागथी के निमित्तथी ज धर्म माने तो ते पण अज्ञानी छे. वस्तुस्थिति जेम छे तेम
जाणवी जोईए.
दानश्वेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिनेदिने।।७।।
सहितनी आ आ वात छे. मुनिओ तो ज्ञान ध्यानमां लीन रहे छे, तेथी तेमनी वात जुदी, पण गृहस्थो तो
अनेक प्रकारना हिंसादि पापमां पडेला छे ते पाप भावथी बचवा देव पूजा वगेरेनो उपदेश छे. ते उपदेशमां
गृहस्थोने आवा प्रकारनो राग होय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. धर्म तो अंतरना ध्रुव चैतन्य स्वभावना आश्रये
जे वीतरागीभाव थाय तेमां ज छे. अनादि वीतराग शासननुं आ वर्णन छे. अहीं जेमनी स्थापना थाय छे ते
समजनारा तो रखडी ज रह्या छे एटले तेनी शुं वात करवी? भगवानना पंचकल्याणकमां भगवाने कहेलो
आत्मस्वभाव समजे तो कल्याण थाय. माटे आत्मानो स्वभाव शुं छे तेनी समजण करवी तेनी ज मुख्यता छे,
ने ते ज धर्मनुं मूळ छे.
विकारथी आत्मगुण प्रगटे–एवी ऊंधी मान्यताथी, मोहरूपी भूते अज्ञानी जीवोने वश कर्या छे.