ते प्रभुता प्रगटवानुं कारण छे.
आत्मा ज्ञानस्वभाव छे... त्रण काळ त्रण लोकने जाणे तेवुं एक एक आत्मामां सामर्थ्य छे... तेनुं भान
तेमने स्त्री नथी, वस्त्र नथी, शस्त्र नथी. तेमनी धर्मसभामां दिव्यनगारुं वागे छे ते कहे छे के: ‘...जेने आत्मा
जो’ तो होय.. जेने अशांति टाळीने शांतिना कुंडमां न्हावुं होय... आत्माना अनंत सागरमां रसबोळ थवुं
होय... सुखमां तरबोळ थवुं होय... ते जीवो अहीं भगवाननी धर्मसभामां आवो ने तेमनी वाणी समजो.. जेने
चैतन्यभगवानने भेटवुं होय ते आ भगवान पासे आवो. आवो रे आवो! धर्मसभामां, आत्माने ओळखीने
अनंत काळनी भूख भांगवी होय ने स्वरूपसंयम मेळववो होय.. दुःख टाळवुं. होय ने शांति जोईती होय तो.’
–आम भगवाननुं दुंदुभीनगारुं पोकार कर छे... अने भगवानना समवसरणमां अनेक संतो–मुनिओ,
जंघाचरणादि ऋद्धिधारक मुनिओनां टोळेटोळां, देवो ने विद्याधरो आकाश मार्गे आवी आवीने दर्शन करे छे.
जंगलमां त्राड पाडता सिंह वगेरे तीर्यंचो पण भगवान पासे आवीने शांत थई बेसी जाय छे. पहेलांं
सर्वज्ञभगवान केवा होय ते ओळखवुं जोईए. जेना हाथमां कांई शस्त्र होय तो तेने कोई प्रत्ये वेरबुद्धि छे एटले
ते वीतराग नथी, बाजुमां स्त्री राखी होयने ब्रह्मचारी पण थयो नथी. तो ते भगवान क्यांथी होय? जे हाथमां
माळा गणतो होय ते कोईनी स्तुति करे छे एटले ते पण पूरो नथी, अधूरो छे. जे पोते रागी ने अपूर्ण होय ते
बीजाने पूर्णतानुं कारण केम थाय?–एटले ते देव न होय. वळी जे वस्त्र राखे तेने शरीर उपरनो राग टळ्यो
नथी एटले ते पण देव न होय.
सीमंधरनाथ पासे! भगवानना केवळज्ञाननी प्रतीत करनारने खरेखर पोताना पूर्ण ज्ञानस्वभावनी प्रतीत
थाय छे.
अहीं स्तुतिमां आचार्यदेवे ए वात सिद्ध करी छे के आत्मामां केवळज्ञान सामर्थ्य छे अने त्रणकाळ
भगवानने देह उपर वस्त्रादि त्रणकाळ त्रणलोकमां होतां नथी. अहो, आवी पूर्ण परमात्मदशाना साधक एवा
संतमुनिओने पण वस्त्र न होय, वस्त्रसहित तो मुनिदशा पण न होय, तो पछी पूर्णदशा पामेला त्रणलोकना
नाथ एवा परमात्माने तो वस्त्रादि शेनां होय? आ कोई वाडानी वात नथी पण वस्तुना स्वरूपनी वात छे.
घरमां हजारो स्त्रीओना संगमां रहेतो होय अने कोई कहे के मने स्त्री वगेरेनो जराय राग नथी,–तो ए केम
बने? राग टळ्यो होय तो रागना निमित्तो पण टळी ज जाय. जेम बदाममां अंदरनुं रातुं फोतरुं नीकळी जाय
तो उपली छाल पण नीकळी ज गई होय. तेम निर्मळ आनंदघन आत्मस्वभावमां लीन थईने जेणे अंदरथी
रागरूपी रातपने काढी नांखी तेने बाह्यमां वस्त्र–स्त्री–आदि रागनां निमित्तो पण छूटी ज जाय छे. अरिहंतदेव
अने निर्ग्रथ गुरुनुं स्वरूप शुं छे ते जाण्या विना घणा बोले छे के ‘अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरुनुं शरण
भवोभव होजो.’ पण अरे भई! अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरु केवा होय तेना भान वगर तुं शरण कोनुं
लईश? ओळखाण तो कर, ओळखाण वगर तने साचुं शरण नहि मळे. रागरहित भगवानने जाण्या वगर
तारो पोतानो आत्मा रागरहित केवो छे ते पण ओळखाय नहि अने तेनी ओळखाण वगर आत्माने साचुं
शरण थाय नहि. अरिहंतदेव तो व्यवहारशरण छे, परमार्थशरण तो पोतानो आत्मा ज छे, हजी जेने
अरिहंतनुंय भान नथी ते पोताना आत्मानुं शरण तो क्यांथी लेशे? जेने बाह्यमां रागा–