२४७६ना महावद १२ ना रोज, पद्मनंदीपचीसीना
शांतिनाथ स्तोत्र उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
आ श्री शांतिनाथ भगवाननुं स्तोत्र वंचाय छे. आत्मा शांत अविकारी स्वरूप छे, शांति माटे तेने कोई
भगवानने पूर्ण स्वालंबी शांति प्रगटी गई छे, जेने एवी शांतिनी रुचि होय ते भगवानने ओळखीने तेमनी
भक्ति करे छे. ईन्द्रो आवीने त्रिलोकनाथ तीर्थंकर प्रभुना चरणे नमी पडे छे ने स्तुति करतां कहे छे के हे नाथ!
पुण्यना फळमां मळेला आ ईन्द्रपद ने देवांगनाओ वगेरे वैभव ते कांई अमारे आदरणीय नथी, प्रभो! आपने
जे वीतरागी शांतस्वभाव प्रगट्यो छे तेनो ज अमने आदर छे–आम जे समजे तेणे भगवाननी भक्ति करी
पुण्यनो आदर न करे.
पुण्यनी रुचि नथी पण वीतरागतानुं ज बहुमान छे. अहो! वीतरागदेवने नमता जीवने द्रष्टिमां वीतरागता
रुचि, हवे ते जीव आत्मस्वभावथी विरुद्ध भावोने नमे ए केम बने? –एक म्यानमां बे तलवार न होय.
अहो! वीतराग स्वभावी आत्मानी रुचि करीने, तेनां गाणां गाईने अनुमोदन कर्युं छे.. हवे आवो
टळे एम बने नहि. बनारसीदासजी कहे छे के–
ज्ञानी मगन विषय सुख मांही यह विपरीत संभवे नांही...
न टळे एम कदी न बने. समयसारना निर्जरा अधिकारमां सम्यग्द्रष्टिनुं वर्णन करतां भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–मिथ्यात्वनी गांठ टळीने, हुं आत्मा निर्मळ ज्ञायक छुं एवुं जेने भान थयुं ते ज्ञानी
पाखंडीनी प्रीति करे के विषयोमां सुख माने–एवी ऊंधाई कदी संभवे नहीं. एकनो हकार त्यां बीजानो नकार...
स्वनी रुचि त्यां पर प्रत्ये उदासीनता... ज्ञान साथे वैराग्य सहज होय ज छे. कोई कहे के ‘आत्मा शुद्ध, पूर्ण
वीतराग छे’ एवुं भान थयुं छे पण मारी रुचि पर उपरथी खसी नथी,–तो ते बने नहि. पर उपरनी रुची न
खसी होय तो आत्मानी रुचि थई ज नथी. ज्ञानीने आत्मा सिवाय बीजा विषयोनी रुचि होय नहि. धर्मनी
ओळखाण थाय, आत्मानी प्रीति थाय ने बीजा उपरथी प्रीति न खसे–ए केम बने? ‘हुं ज्ञानमूर्ति आत्मा
परथी नीराळो छुं, मारी शांति मारामां छे’ –एवुं भान करीने वीतराग आनंदघन स्वभावना गुण गानार
भान थयुं त्रण काळ त्रणलोकनुं ज्ञान थयुं आत्मा शक्तिपणे तो पूरो हतो ज ने हवे ते पूर्ण शक्ति उघडी गई...
आवा वीतराग भगवानने ओळखीने तेमनां गुण गानार विकारना कोई पडखांने वखाणी न शके...अने जो
विकारनां पडखांने वखाणे तो ते वीतरागनो भक्त नहि, धर्मी जेने वीतराग स्वभावनी रुचि नथी