Atmadharma magazine - Ank 089
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १०४ : आत्मधर्म : ८९
जगतना घणा जीवो आत्मानी दरकार वगर अणशीया ने कूतरां–गलूडीयांनी जेम करे छे. अहो! अनंतकाळना
अजाण्या जीवो...ने अजाण्या पंथ...तेमां आत्मानी शांतिनुं भान न करे ने आत्मानी रुचि पण न करे तो जन्म–
मरण क्यांथी मटे?
(१९) ईन्द्रनी भक्ति अने भावना...
अहीं वीतरागभगवाननी भक्तिनुं वर्णन छे, ओळखाण अहितनी वात छे. जेने आत्मानुं भान छे
अने जे एकावतारी छे एवा ईन्द्रो भगवान पासे भक्तिथी नाची ऊठे छे...तीर्थंकरभगवाननो जन्म थतां ईन्द्री
आवीने भगवाननी मातानी स्तुति करतां कहे छे के हे माता! तें जगतनो दीवो दीधो... हे जगत्दीपकनी दातार,
माता! तें अमने जगतप्रकाशक दीवो आप्यो. हे लोकनी माता! तें अमने जगतनो नाथ आप्यो... तुं
तीर्थंकरभगवाननी जनेता छो... ईन्द्रने पोताने त्रण ज्ञान छे, आत्मानुं भान छे, एक भवे मोक्ष जवानुं छे ते
पोताने अंदर नक्की थई गयुं छे, ने आ भगवान तो आ ज भवे मोक्ष जवाना छे. जेने एकभवे मोक्ष जवुं छे
एवा ईन्द्र, ए ज भवे मोक्ष जनारा भगवानना गाणां पेट भरीने गाय छे अर्थात् गाणां गाता धराता नथी.
ईन्द्रने पुण्यनी भावना नथी... ईन्द्रासने बेसे त्यारे य भावना करे छे के–आ ईन्द्रनी रिद्धि ते कांई अमारुं नथी,
अमे तो चैतन्यस्वरूप छीए... अहा, धन्य ते घडी अने धन्य ते पळ, के जे टाणे मनुष्यभव पामी, चारित्र
लईने मुनि थशुं ने केवळज्ञान पामशुं. ए चारित्रदशा पासे आ ईन्द्रपणानी ऋद्धि तो तूच्छ छे. चारित्रनुं
उत्तममां उत्तम साधन जे मुनिदशा–केवळज्ञानने हथेळीमां लेवानी तैयारी–तेनां तो ईन्द्र पण गाणां गाय छे ने
तेनी भावना करे छे. मंदमतिना नाना गजना मापे मोटी वात न बेसे तो पण त्रण काळमां एम ज छे,
महाविदेहमां भगवाननी धर्मसभामां ए प्रमाणे थाय छे. जेम मेडी उपरना राच अने वैभव तद्न हेठे उभेलो
शुं भाळे? दादरे चडेलो देखीने कहे के–अहीं घणा वैभव भर्या छे, पण नीचे उभेलो कहे के ‘मने तो कांई देखातुं
नथी’ पण भाई! दादरे चडीने ऊंचे जो तो देखाय ने? तेम चैतन्यभगवान आत्मानी अनंत समृद्धि, ने
आत्माना केवळज्ञाननी समृद्धि तेम ज तीर्थंकरना समवसरणनी विभूति (अर्थात् ऊर्ध्वगामी–आत्मारूपी
मेडीनो वैभव) जोवा माटे ऊर्ध्वगामी था एटले के अंतरमां त्रिकाळी स्वभावनी श्रेणीना पगथीये चड,
अंतरमां जागीने वीतरागस्वभावने जोवानी ओळखाण लाव. बहारमां जोये कांई नहि देखाय, अंतरना
स्वभावमां आगळ जा तो अनंत केवळज्ञाननी ऋद्धि देखाशे.
(२०) भगवाननी साची भक्ति अने भगवाननो भेटो
आचार्यदेव कहे छे के भगवाननी धर्मसभामां देवो द्वारा जे दुन्दुभी–नगारुं वागे छे ते भगवाननी
प्रभुतानो पोकार करी रह्युं छे के जगतमां सेववायोग्य देवाधिदेव होय तो ते एक आ ज छे; आना जेवो कोई
ऊंचो पुरुष नथी, आना सिवाय कोई त्रिलोकनाथ न होई शके. अने त्रिलोकनाथ भगवाने दिव्यध्वनिरूपी
नगारामां आत्मानी प्रभुतानी घोषणा करी के बधा जीवो स्वभावे भगवान ज छे... तमे तमारा स्वभावने
समजीने धर्म पामी जाओ... आत्माना स्वभावनी पूर्ण थयेली दशामां वर्तता अरिहंतभगवानने जे वाणी
नीकळी, ते आत्महितकारी वाणी कोने मान्य छे? –के सज्जनोने मान्य छे. हे नाथ! हे तीर्थंकर! जेओ
आत्महितना कामी छे एवा ऊंडा पुरुषोने–आत्मार्थी पुरुषोने–आत्मानी रूडी श्रद्धा ने निर्मळज्ञान करे तेवा धर्मी
जीवोने–आपनी ज वाणी मान्य छे. दुर्जनोए पोतानी कल्पनाथी जे मान्युं छे ते यथार्थ स्वरूप नथी. अज्ञानी
माणसो तो जाणे के भगवान कांईक लक्ष्मी वगेरे आपी देशे–एम मानीने ‘हे दीनानाथ दया करजो’ –एम
स्तुतिमां बोले छे, ते खरेखर वीतरागदेवनी स्तुति नथी करतो, पण विषय–कषायनी स्तुति करे छे, तेणे
वीतरागने ओळख्या नथी. ‘हे दीनबंधु! दया करजो’ एम ज्ञानीनी भाषामां आवे पण ज्ञानी समजे छे के आ तो
फक्त भक्तिना उपचारनी भाषा छे, भगवानने कांई दयानो रागभाव होतो नथी. ने भगवान मने कांई देता
नथी, मारी प्रभुता मारा स्वभावमांथी आववानी छे. आम पोतानी प्रभुतानुं भान राखीने धर्मात्मा जीव
भगवाननी भक्ति करे छे. ‘दीनदयाळ’ एवा बिरूदनो अर्थ समज्या वगर, खरेखर भगवान मने कांई आपी
देशे एम मानीने, भगवान पासेथी, कांई लेवानी ईच्छाथी जे स्तुति करे छे ते तो पोताने रांको–रागी अने परनो
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)