: १०८ : आत्मधर्म : ८९
स्तनमांथी दूधनी धार छूटे छे. पुत्रने तो कांई हवे दूधनी जरूर नथी पण माताना स्तनमांथी दूध छूट्या विना नहि रहे... तेम
आत्मा वीतरागस्वरूप चैतन्यमूर्ति आनंदघन छे तेनी जेने रुचि होय ते जीवने, बाह्यमां पण वीतरागताना निमित्तभूत
अरिहंत परमात्माने जोतां ज ‘अहो मारा भगवान...’ एम भक्ति ऊछळ्या विना रहेती नथी, जगत्गुरु तीर्थंकरने जोतां
ज अंदरथी भक्तिनो आह्लाद जागे छे. भगवान तो वीतराग छे तेने कांई भक्तिनी जरूर नथी पण जेने वीतरागतानी
साची प्रीति छे तेने भक्तिनो भाव ऊछळ्या वगर रहेशे नहि. अत्यारे भरतक्षेत्रे साक्षात् भगवानना तो विरह पड्या छे...
साक्षात् वीतराग प्रभुना विरहमां तेमनी वीतरागी मूद्रावाळी प्रतिमाने जोतां भगवाननुं स्मरण करीने भक्ति करे छे, ने
प्रतिमामां पण ‘अहो! आ भगवान ज छे’ एम पोताना भावनो निक्षेप करे छे. पं. बनारसीदासजी कहे छे के–
कहत बनारसी अलप भव थिति जाकी
सोई जिनप्रतिमा प्रमानै जिन सारखी.
धर्मीने अंतरमां वीतरागी आत्मस्वरूप भास्युं छे पण हजी पूरी वीतरागता थती नथी एटले वीतराग
प्रभुनुं बहुमान करे छे. आत्माना वीतरागपणानी भावनाना उल्लासपूर्वक वीतराग भगवाननी स्थापना करे
छे, अने तेमनी भक्ति करे छे.
(२७) धन्य ए अलंकार युक्त भक्ति!
अहीं पद्मनंदी आचार्यदेव श्री शांतिनाथ भगवाननी स्तुति करे छे. तेमां पांचमां श्लोकमां कहे छे के ‘हे
नाथ! तारा भामंडळनी दिव्यता पासे आ सूरज अने चंद्र पण झांखा लागे छे... जाणे के अग्निना बे तणखा
होय, अथवा तो सफेद वादळानां टुकडा होय’ आचार्यदेव ज्यां त्यां भगवाननो महिमा ज भाळी रह्या छे...
‘हरतां फरतां प्रगट हरि देखुं रे...
मारुं जीव्युं सफळ तव लेखुं रे...’
समस्त पापने टाळीने आत्मानो आनंद जेमणे प्रगट कर्यो छे एवा त्रिलोकनाथ भगवानने अहीं ‘हरि’
तरीके संबोधीने कहे छे के अमारा पापोनो नाश करनार हे हरि! आकाशमां ऊडता आ सूरज ने चंद्र तो
वादळना कटका जेवा लागे छे. ज्यारे मेरु पर्वत उपर आपनो जन्माभिषेक थयो अने ईन्द्रे आपनी भक्ति करी,
त्यारे आपनी भक्ति करतां तेना हाथ पहोळा थईने वादळां साथे अथडातां वादळना टुकडा थई गया, तेमांथी बे
कटका आ सूरज ने चंद्र तरीके हजी आकाशमां ऊडे छे! जुओ अलंकार अने भक्ति! आचार्यदेव ज्यां ने त्यां
भगवानने अने भगवानना कल्याणकने तथा ईन्द्रनी भक्तिने ज भाळे छे. सूर्य–चंद्रने देखतां पण हे नाथ!
तारा कल्याणक ज याद आवे छे. हे नाथ! जेम ईन्द्र भक्ति करता हता त्यारे आकाशमां घनघोर वादळाना कटका
थई गया, तेम तारी वीतरागतानी भक्तिथी अमारा आत्मा उपर जे कर्मनां वादळ हतां ते फाटी गयां.
वाह रे वाह! पद्मनंदी आचार्यदेवनी भक्ति! आ पद्मनंदी आचार्यदेव महान दिगंबर संत हता...
जंगलमां विचरता... आत्माना आनंदनी रमणतामां झूलता हता... महा वीतरागी हता... तेमने विकल्प ऊठतां
वीतराग भगवाननी आ स्तुति करी छे. तेमां अलंकारथी कहे छे के हे नाथ! आकाशमां आ वादळनां कटका नथी
पण तारी स्तुति करतां कर्मना कटका थाय छे, कर्मरूपी वादळ फाटीने तेना कटका ऊडी ऊडीने त्यां जाय छे.
आकाशमां वादळां देखतां अंतरमां एम थाय छे के हे नाथ! हुं तो तारी भक्तिथी निर्मळ थई गयो छुं, ने मारा
कर्मना कटका ऊडीने त्यां चोंटया छे. जुओ! वीतरागतानुं बहुमान!
वळी हे नाथ! आकाशमां देखाता सूर्य–चंद्र पण आपना भामंडळ पासे अग्निना अंगारा जेवा लागे छे.
केवळज्ञानज्योति प्रगट करवा माटे आपे ज्यारे ऊग्र ध्यानअग्नि प्रगटावीने कर्मोने बाळी नांख्या त्यारे तेना तणखां ऊडीने
हजी सूर्य–चंद्ररूपे आकाशमां फरे छे. हे नाथ! तारा ध्यानाग्निथी बळेला कर्मना रजकणो (सूर्य ने चंद्र) पण जगतमां प्रकाश
करे तो तारा दिव्य केवळज्ञान प्रकाशनी तो वात शुं करवी? आम भगवानना केवळज्ञाननी स्तुति करी करीने आचार्यदेवे
पोताना केवळज्ञान भावनाने मलावी छे. अंदर पूर्ण स्वभावनुं बहुमान जाग्युं छे ते वीतरागनां गाणां गवरावे छे.
(२८) धर्मात्मानी, वीतरागतापोषक भक्ति
त्रिलोकनाथ तीर्थंकर प्रभुने जोतां ईन्द्र भक्तिथी विचारे छे के हे नाथ! तमारी ने मारी सत्ता जुदी पण स्वभाव
सरखो आपने ते स्वभाव पूरो प्रगट्यो छे ने अमे हजी अधूरा छीए... पर्याये आंतरा पड्या छे... पण हे नाथ! स्वभावना
जोरे हुं ते आंतरो तोडी नांखीश. जे आम जाणे तेने भगवान प्रत्ये भक्ति ऊछळे छे. जे आम न जाणे तेने यथार्थ भक्ति
क्यांथी उल्लसे? विषय–कषायना पाप भावो टाळवा अने वीतरागतानी भावना पोषवा वीतरागभगवाननी भक्ति
जिज्ञासुने आवे छे. राग होवा छतां जेने वीतरागभगवाननी भक्ति नथी गोठतीं ते तीव्र मूढ छे. अहो! जेमना आत्मानी
तो वात ज शुं करवी, पण जेमना दिव्य शरीरना तेजमां
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)