Atmadharma magazine - Ank 089
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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फागण : २४७७ : १०९ :
हजारो सूर्यनुं तेज पण ढंकाई जाय एवा तीर्थंकरभगवानना गाणां ईन्द्रो अने गणधरो गाय तोय पूरा नथी
पडतां! अत्यारे महाविदेहमां दैवी समवसरणने विषे गंधकूटी उपर सिंहासनथीये चार आगळ ऊंचे श्री सीमंधर
भगवान बिराजी रह्या छे. त्यां कल्पवृक्षनां फळथी ने मणीरत्नोना दीपकथी भगवाननी पूजा करतां समकीति
चक्रवर्ती कहे छे के हे जिनेन्द्र! आपनी वीतरागतानी भक्ति करवा माटे मारी पासे कांई नथी... हे नाथ! पूर्ण
वीतरागतानुं भान छे ने वीतरागतानो अंश प्रगट्यो छे; ज्यारे अंदरथी पूरी वीतरागता प्रगट करशुं त्यारे
आपनी भक्ति पूरी थशे. ज्यां राग वगरना आत्मानी श्रद्धा थाय त्यां स्थूळ रागभावो तो टळी ज जाय एटले
कुदेवादिनो राग टळीने वीतरागभगवान प्रत्ये भक्ति जाग्या विना न रहे.
(२९) जिनेन्द्र भक्तिनो उल्लास कोने न आवे.!
कोई जीव संसारखातर तो चोवीसे कलाक पापनां परिणाम सेवे ने भगवाननी भक्तिनो प्रसंग आवतां
शिथिल थाय तो ते पापी छे, पाखंडी छे, अज्ञानी छे, आचार्यदेव तेने जैन संप्रदायमां गणता नथी. जैन कहेवडावे अने
जिनेन्द्र भगवाननी भक्ति न ऊछळे, तो ते जैन शेनो? अने साथे साथे ए पण समजवुं के धर्मी जीव ते भक्तिना
रागने धर्म नथी मानता. भगवाननी भक्ति वखतेय धर्मीनी द्रष्टि शुद्ध स्वभाव उपर पडी छे, शुद्धद्रष्टिपूर्वक जेटलो
राग टळ्‌यो तेटलो लाभ छे, जे राग रह्यो ते धर्म नथी. अज्ञानी तो भडके छे के ‘हाय! –हाय! भगवाननी भक्तिथी
मुक्ति न थाय? –भगवाननी भक्तिथी धर्म न थाय?’ हा. भाई! सत्य तो त्रणे काळे एम ज छे. भक्तिना रागथी
तो पुण्यबंधन ज थाय छे. अने ‘हुं शुद्ध ज्ञान छुं’ –एवो जे शुद्धस्वभाव उपरनो अभिप्राय रहे ते धर्म, अने मुक्तिनुं
कारण छे, ते ज भगवाननी निश्चयभक्ति छे. ज्यारे ज्यारे भगवाननी भक्तिना टाणां आवे त्यारे आ वात द्रष्टिमां
राखवी. हमणां तो भगवान पधारे छे एटले आठेय दिवस भगवानने भाववाना छे. कोई पूछे के भगवानने
भाववाथी शुं थवानुं? तो कहे छे के भगवानने भाववाथी भगवान थवाना! जेने जेनो रंग लागे तेनुं त्यां वलण वळे.
सूतां ने जागतां जेने सर्वज्ञ भगवाननो रंग लाग्यो अने मारो आत्मा भगवान जेवो–एवुं भान थयुं तेनुं वलण
आत्मा तरफ वळीने ते भगवान थया विना रहे नहि. अहो, अंदर विचारो के ‘हुं क्यां ऊभो छुं!’ जैन वाडामां
जन्मीने पण कदी भगवाननी भक्तिना पानां चडया नहि... रंग लाग्या नहि, तो ते अंदरना भगवान तरफ तो वळे
क्यांथी?
भगवाननी भक्तिनी वात आवे त्यां कोई एम कहे के ‘भक्ति तो राग छे ने तेनाथी पुण्यबंधन थई जाय, माटे
अमने भक्तिनो उल्लास नथी आवतो!’ तो तेने कहे छे के हे भाई! जो तुं वीतरागपणे रही शकतो हो तो तारी वात
साची, पण हजी स्त्री, लक्ष्मी, शरीरादिना अशुभ पाप रागमां तो तने उल्लास आवे छे ने भगवाननी भक्तिना टाणे
उल्लास नथी आवतो ने त्यां पुण्यबंधन कहीने ते वात ऊडाडे छे, तो तुं शूष्क स्वछंदी छे. श्रीमदे एक गाथामां कह्युं छे के
उपादननुं नाम लई ए जे तजे निमित्त,
पामे नहि सिद्धत्त्वनो रहे भ्रांतिमां स्थित १३६.
उपादाननो जे शुद्धभाव छे ते तो प्रगट्यो नथी ने निमित्तरूप वीतराग भगवाननी भक्तिने पण छोडी
दे छे, तो ते तो एकला पापमां पडीने संसारमां ज रखडशे. निमित्तनो राग आदरणीय नथी ए वात साची.
परंतु, ते कथन पकडीने जे वीतरागी निमित्तोनी भक्ति छोडीने संसारना निमित्तोना रागने पोषे छे तेने तो
पुण्य–पापनोय विवेक नथी, निमित्तनोय विवेक नथी, तो तेने उपादानमां धर्म होय नहि.
(३०) भक्तोनी भक्ति
परने माटे तो कोई कांई करतुं ज नथी, मात्र पोताना भावने पोषे छे. बायडीना शरीर उपर दागीना वगेरे
देखीने पोतानो पापराग पोषाय छे तेथी ते रागने खातर दागीना–वस्त्र वगेरे लावीने स्त्रीने आपे छे. तेम वीतराग
भगवानने देखतां धर्मीने पोतानी वीतराग भावना पोषाय छे एटले त्या तेने भक्ति आव्या विना रहे नहि. ते कांई
भगवानने खातर भक्ति करतो नथी पण पोताने ते जातनो शुभराग आवे छे तेथी भक्ति करे छे. जेम स्त्रीना
रागीने स्त्रीने मळतां होंश आवे छे तेम वीतरागताना प्रेमीने वीतराग भगवानने भेटतां होंश आवे छे. भगवानना
भक्त भगवान पासे जईने कहे छे के हे नाथ! हे प्रभु! आपनी वीतरागताना प्रेमथी आपने मळवा आव्यो छुं...
प्रभु! मारा अंतरमां तारा प्रत्ये प्रेम जाग्यो छे ते बीजा शुं जाणशे? नाथ! आप जाणो ने हुं जाणुं! हे नाथ! तारी
वीतरागी मूद्रा नीहाळतां नीहाळतां अंदरथी एवो आह्लाद आवी जाय छे के जाणे हमणां अंदरथी प्रभुता प्रगटी... के...
प्रटगशे? हे नाथ! तने भाळतां हुं मारी प्रभुताने ज भाळुं छुं... मारा ज्ञानने ज भाळुं छुं जुओ! आ भक्तिना टाणां
आव्या छे... आवा मोंघा दिवसो बहुं ओछा आवे छे. संसारनी प्रीति घटाडीने
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)